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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने 'विश्वमित्र' के दीपावली अंक दि. 21/10/49 - 16 में लिखा था कि - "आधुनिक सभ्यता आर्थिक बर्बरता की मंजिल पर है। वह तो अधिकांश रूप में संसार और अधिकार के पीछे दौड़ रही है और आत्मा तथा उसकी पूर्णता की ओर ध्यान देने की परवाह नहीं करती है। आज की व्यस्तता, वेगगति और नैतिक विकास इतना अवकाश ही नहीं लेने देती है कि आत्म विकास के द्वारा सभ्यता के वास्तविक विकास का काम कर सके ।" "आत्म विकास के लिए ही जैन श्रावक को कहा जाता है कि -
न्यायोपात्तधनो यजन्गुणगुरुन् सद्गीस्त्रिवर्गं भज न्नन्योन्यानुगुणं तदर्हगृहिणी - स्थानालयो हीमय: । युक्ताहार विहार आर्यसमिति: प्राज्ञः कृतज्ञो वशी, श्रृण्वन्धर्म विधिं, दयालुरघभी: सागार धर्मे चरेत् ॥गा. 11॥
अर्थात् न्याय से धन कमाने वाला, गुणों को, गुरुजनों को तथा गुणों में प्रधान व्यक्तियों को पूजने वाला, हित- मित प्रिय बोलने वाला, धर्म अर्थ काम रूप त्रिवर्ग को परस्पर विरोध रहित सेवन करने
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वाला, त्रिवर्ग के योग्य स्त्री, ग्राम और मकान सहित लज्जावान, शास्त्रानुकूल आहार और विहार करने वाला, सदाचारियों की संगति करने वाला, विवेकी, उपकार का जानकार, जितेन्द्रिय, धर्म की विधि को सुनने वाला, दयावान और पापों से डरने वाला व्यक्ति सागार धर्म का पालन कर सकता है।
राष्ट्र के सामने आज की सबसे बड़ी समस्या काले धन (अनीति का धन) और आतंकवाद की है। श्रावक इस दृष्टि से राष्ट का सबसे बड़ा हितैषी है क्योंकि वह न्याय से धन कमाता है। और हिंसा से दूर रहता है । वह न किसी की हिंसा करता है, न हिंसा करने के भाव मन में या मुख पर लाता है । यह कहाँ की नीति है कि दूसरों को मारो या दूसरों को मारने के लिए स्वयं मर जाओ । मानव बम की अवधारणा किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। ऐसे व्यक्ति के विवेक को क्या कहें जो दूसरों को मारने के लिए खुद मरता है। यह स्थिति किसी भी राष्ट्र के लिए उचित नहीं कही जा सकती। नागरिक अधिकार एवं राष्ट्र धर्म भी इसे उचित नहीं मानता। जैन श्रावक के लिए तो स्पष्ट विधान है कि
जं इच्छसि अप्पणतो जं च ण इच्छसि अप्पणतो । तं इच्छ परस्सविय एत्तियगं जिणसासणं ॥
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अर्थात् जैसा तुम अपने प्रति चाहते हो और जैसा तुम अपने प्रति नहीं चाहते हो, दूसरों के प्रति भी तुम वैसा ही व्यवहार करो, जिन शासन का सार इतना ही है।
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आज यदि इस नीति पर समाज या देशवासी चल रहे होते तो आतंकवाद जैसी समस्या का जन्म ही नहीं होता । आतंकवाद के मूल में पद, धन और प्रतिष्ठा है जबकि श्रावक स्वपद चाहता है, सत्ता प्रतिष्ठान नहीं । श्रावक वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना रखता है। जबकि अन्य का सोच वैसा ही हो; यह जरूरी नहीं आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने लिखा है कि -
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