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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ निर्वाणभक्ति में किया गया है । ये भक्तियाँ प्राकृत में भी है और संस्कृत में भी। संस्कृत की सभी भक्तियाँ पूज्यपाद स्वामीकृत है एवं प्राकृत की सभी भक्तियाँ आचार्य कुन्दकुन्दकृत है।
संस्कृत निर्वाणभक्ति में लिखा है कि - जिस मङ्गलकारी ऊर्जयन्त पर्वत की परमार्थ की खोज करने वाले विबुधेश्वर आदि श्रमणों के द्वारा सेवा की जाती है, उसी बृहद् ऊर्जयन्त पर्वत पर भगवान् अरिष्टनेमि ने यथासमय अष्ट कर्मों का नाश करके मुक्ति को प्राप्त किया।
इन भक्तियों के अतिरिक्त नेमिनाथ भगवान् की अनेक आचार्यों ने स्तुति की है और उनमें ऊर्जयन्त पर्वत के माहात्म्य को रेखाङ्कित किया है । ऐसे आचार्यो में आचार्य समन्तभद्र प्रमुख हैं। उन्होंने अपने स्वयम्भूस्तोत्र में तीर्थङ्कर नेमिनाथ की दश पद्यों में स्तुति की है, जिनमें सातवें एवं आठवें पद्य में ऊर्जयन्त पर्वत का अनेक विशेषणों एवं उपमाओं के साथ उल्लेख किया है । लिखते हैं कि जो पृथ्वी का कुकुद है, अर्थात् बैल के कंधे के समान ऊँचा तथा शोभा उत्पन्न करने वाला है, जो विद्याधरों की स्त्रियों से सेवित शिखरों के द्वारा सुशोभित है, जिसके तट मेघों के समूह से घिरे रहते हैं, जो इन्द्र के द्वारा लिखे हुए आपके (नेमिनाथ के) चिह्नों को धारण करता है, इसलिए वह तीर्थ स्थान है। हमेशा तथा आज भी प्रीति से विस्तृत चित्त वाले ऋषियों के द्वारा जो सब ओर से अत्याधिक सेवित है, ऐसा वह अतिशय प्रसिद्ध ऊर्जयन्त नाम का पर्वत है।
इसी प्रकार मुनि विजयसिंह, आचार्य हेमचंद्र एवं आचार्य रामचंद्रसूरि का भी नेमिस्तव पाया जाता है, जिनमें मुनि चतुरविजय के अनुसार मुनि विजय सिंह आचार्य का नेमिस्तव सबसे प्राचीन है।
अपभ्रंश साहित्य का एक संग्रह जैन स्तोत्र संदोह के प्रथम भाग में प्राप्त होता है। ..... इस स्तोत्र में सम्मेद शिखर, शत्रुजय एवं आबू तीर्थक्षेत्र के साथ ही ऊर्जयन्तगिरि के वैशिष्ट्य को भी अङ्कित किया गया है । कल्याण कल्पतरु स्तोत्र के अंतर्गत नेमिजिन स्तोत्र में ऊर्जयन्त पर्वत को पूज्य माना गया है। वहाँ कहा गया है कि - व्रत सम्पन्न, एक शाटिका (साड़ी) से युक्त अर्थात् आर्यिका के व्रतों को धारण करने वाली उग्रसेन की पुत्री राजुल एवं अनेक आर्यिकाओं की उपस्थिति के कारण जो ऊर्जयन्त पर्वत पूज्यपने को प्राप्त हुआ था, उस पर्वत से जिन भगवान् नेमिनाथ ने आषाढ़ शुक्ल सप्तमी (वस्तुत: अष्टमी) को निर्वाण प्राप्त किया, वे भगवान् नेमिनाथ मेरे मनरूपी कमल पर निरंतर निवास करें एवं मेरे मन को पवित्र करें।
__ सौराष्ट्र (गुजरात-काठियाबाड़) देश के गिरिनगर नाम के नगर की चंद्रगुफा से आचार्य पुष्पदन्तभूतबली के गुरु एवं अष्टाङ्ग निमित्त के पारगामी आचार्य धरसेन का भी संबंध रहा है।
अत: इसमें कोई संदेह नहीं है कि जैनों के लिए गिरिनार पर्वत परम पवित्र एवं पूजनीय है। साथ ही यह अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य से ओतप्रोत है। इसी कारण इसकी ओर जैनेतर बंधुओं का आकृष्ट होना स्वाभाविक था, किन्तु उसका कोई धार्मिक कारण भी होना चाहिए था अतः परवर्ती काल में हिन्दुओं ने उस पर अनेक देवी-देवताओं की स्थापना कर उस पर अपना वर्चस्व बढ़ाने का प्रयत्न किया है और यह उपक्रम आज भी निरंतर बढ़ रहा है। इस संदर्भ में डॉ. कामताप्रसाद जैन का कहना है कि - जैनेतर बंधुओं ने गिरिनार की महत्ता को बढ़ाने के लिए सभी देवताओं को उस पर ला बैठाया है। जेम्स वगैस के कथन को आधार बनाकर वे आगे लिखते हैं कि - शिवजी के प्रसङ्ग को लेकर उन्होंने (हिन्दूओं ने) मनमानी कथाएँ गढ़
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