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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ टोंको पर जब ध्वजा फहराई थी, तब उस एक ध्वजा पर लिखवा दिया था "जैनं जयतु शासन" जैन शासन सदा जयबंत रहे । जैसे सूर्य उदयाचल और अस्ताचल के समय समान लालिमा विखेरता है वैसे ही मेरे पिता श्री सुख और दुख दोनों ही समय में समता भाव धारण करते थे, कहते थे कि "यह न रहा है तो वह न रहेगा" अर्थात् अपने पास सुख नहीं रहा तो दुख भी न रहेगा । यह तो सुख दुख का कालचक्र है, चलता ही रहता है। उसमें धैर्य धारण करना हमारा धर्म है। उनकी इन सभी स्मृतियों को संजोते हुये भव भव में धर्म मार्ग पर चलने वाली उस परम आत्मा के प्रति हम कृतज्ञता प्रगट करते हैं, उनके प्रति नतमस्तक होते हैं।
सागर से गंभीर मेरे नानाजी
श्रीमती ज्योति जैन प्रदीप जैन, नरसिंहपुर मेरे नानाजी की मुझे बहुत याद आती है । मैं बचपन में अपने नानाजी के घर आकर बहुत खेलती थी, तथा नानाजी हम लोगों पर बहुत स्नेह रखते थे कभी आज तक नानाजी हम लोगों को नाराज नहीं हुये हम लोग कुछ गलती कर देते थे तो बड़ी शांति पूर्वक समझा देते थे कि अभी ये सब छोटे हैं बच्चों से गलती हो जाया करती है कोई बात नहीं भविष्य में ध्यान रखना । ऐसी गंभीरता मेरे नानाजी के अंदर थी। हमें ऐसा लगता है कि ऐसी गंभीरता हम लोगों के अंदर भी आना चाहिए । नानाजी बड़े शांत परिणामी, आकर्षक सौम्य मुद्रा, परम हितैषी थे, ऐसे आदर्श गुणों से लबालब भरे कोई विरले ही मानव दिखते है। मेरे नानाजी का रहन सहन बिल्कुल सादा और उनकी पोशाक नेताओं के समान थी। हम लोगों को बचपन में धार्मिक शिक्षा दिया करते थे, उसी संस्कार वश आज हम लोगों का जीवन भी धर्म मय है । समुद्र के लिए गंभीरता की उपमा दी जाती है समुद्र में लहरें वायु के संयोग से उठा करती हैं जब वायु नहीं चलती तो समुद्र बड़ा गंभीर और स्तब्ध होता है वैसे ही शांति उनके जीवन की अनुचरी थी। उनका जीवन संघर्षमय होने पर भी उन्होंने अपने गुणों को नहीं छोड़ा उनका कहना था कि सुख दुख में हमेशा शांत रहना चाहिए । एक वाक्य हमेशा कहा करते थे कि "यह न रहा है तो वह न रहेगा" अर्थात सुख नहीं रहा तो दुख भी न रहेगा। दोनों परिस्थितियों में समान रहना चाहिए। ऐसी नाना जी की कई बातें हम लोगों को जीवन में याद आती रहती हैं हम उनकों कभी भूल नहीं सकते । ऐसी परलोक में विराजमान उस महान आत्मा को मेरा शत् शत् बार प्रणाम ।
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