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शुभाशीष / श्रद्धांजलि
''विनयं मोक्खस्य द्वारम्"
पं. दयाचंद्र साहित्याचार्य के भीतर विनय नामक अंतरंग विशेष गुण था। जिस महान् गुण के कारण आप अपने जीवन में गरिमामय पांडित्य को वृद्धिंगत करते रहे, इसी के प्रभाव से आप प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति के पथ पर अग्रसर रहे ।
उपचार विनय की उपरिंम सीमा को आर्यिका दृढमती माता जी ने देखा और इसे संस्मरण में भी सुनाया कि 'आप जब पं. डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य को आते देखते तो, प्रमुदित होकर अपने | स्थान से खड़े होकर करबद्ध नम्रीभूत हो उठते थे। ऐसा देखकर सभी लोग आश्चर्य चकित हो उठते थे ये उनकी बाह्य क्रिया ही नहीं अंतरंग परिणति की अभिव्यक्ति थी ।
आप हमेशा अपने जीवन में क्षमादि धर्मो को धारण करते हुए अंतरंग तप स्वाध्याय को भी स्थान देते रहे। आपका कथन था कि यदि किसी को अपना ज्ञान स्थायित्व की ओर ले जाना है तो मात्र वाचना स्वाध्याय, से कुछ नहीं होगा, उसे पृच्छना स्वाध्याय | अर्थात् तत्त्व चर्चा की भी आवश्यकता है। शुद्ध उच्चारण के साथ साथ वे आम्नाय स्वाध्याय के रूप में अर्थ सहित पाठ करने की प्रेरणा देते थे। आप अध्यापन कार्य में अपने शिष्यों को विषयों में निपुण कराने के लिए वाचना पृच्छना की अनिवार्यता समझते थे। ऐसे परम आदरणीय पंडित श्री दयाचंद्र साहित्याचार्य जी थे जिन्हें जैन जैनेतर जन साधुत्व की कड़ी के रूप में स्मरण करते हैं और सम्मान देते है। ऐसी प्रतिभा के धनी पंडित जी को सतत् आर्शीवाद ।
- आर्यिका दृदमति
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
आगम पोषक पंडित दयाचंद्रजी
आगम भक्त पंडित श्री दयाचंद्र जी किसी पंथ, परंपरा या स्थानीय मतों से प्रभावित होकर अपनी आस्था को चलायमान करने वालों में से नहीं थे, परंतु आगम के गहन अभ्यासी, तत्त्व जिज्ञासु हठागृह से दूर रहने वाले व्यक्ति नहीं, एक व्यक्तित्व थे । सन् 2001 चातुर्मास में अनादिनिधन सिद्धक्षेत्र सम्मेद शिखरजी में हमारे पास दर्शनार्थ पधारे । उस समय उनके साथ तत्त्व चर्चा करते समय मैंने उनको पूछा - |" जिसका आदिनाथ पुराण में जिनसेन स्वामी ने उल्लेख किया है - ऐसे उपनयन जनेऊ के बारे में आपके क्या विचार है?" उस समय उन्होंने प्रांतीय परंपरा पंथवाद को
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छोड़कर आगम को ही प्रमाण मानने वालों ने बताया- पू-माताजी जो आगम के विचार है वो ही मेरे विचार है मेरे विचार आगम से भिन्न नहीं है ।" इन्हीं शब्दों से उनकी आगम निष्ठा का ज्ञान होता है। वर्तमान जैन समाज के लिए ऐसे आगमनिष्ठ विद्वानों की अति आवश्यकता है। जो मात्र पैसे के चंद टुकड़ों के पीछे आगम को अपने अनुसार बदलें उनकी आवश्यकता नहीं, परंतु आगम के अनुसार अपने दर्शन ज्ञान चरित्र को बनायें एवं समाज को सही दिशाबोध करायें। ऐसे ही पं. दयाचंद जी थे।
आर्यिका सुभूषण मति
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