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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पुद्गल के गुणों से रहित है। व्यवहार नय' से (गुण पर्ययसमवेत:) गुण एवं पर्यायों से सहित तथा (समुदयव्यय ध्रौव्यैः समाहित:) उत्पाद, नाश एवं नित्यता से समाहित है। भावार्थ - लक्षण या स्वरूप दो तरह का होता है - (1) निश्चय रूप अर्थात् असली (भूतार्थ) । (2) व्यवहार रूप (अभूतार्थ)। तदनुसार इस श्लोक द्वारा जीवद्रव्य का लक्षण दो नयों की अपेक्षा कहा गया है, जो अन्य अजीव (जड़) द्रव्यों में नहीं पाया जाता - आदि 91 लाइनों में विस्तृत भावार्थ सप्रमाण लिखा गया है - यह है श्री वर्णी जी की विशेष ज्ञान की प्रतिभा । अन्य उद्धरण - मदिरा के सेवन से द्रव्य - भाव दोनों हिंसाएं "संभव मद्यं मोहयति मन: मोहिताचित्तसु विस्मृतधर्मा जीवो, हियविशंकामाचिरति।"62 । अन्वय - अर्थ: - आचार्य कहते हैं कि (मद्यं मन: मोहयति) मदिरा के पीने से इन्द्रियाधीन मन या ज्ञान बेहोश या विवेक रहित पागल जैसा मूर्च्छित हो जाता है। (तुमोहिताचत्ति: धर्म निस्मरति) और मूच्छित या विवेकहीन जीव धर्म या कर्त्तव्य को भूल जाना है। पश्चात् (विस्मृत धर्म: जीव: अविशंक हिंसा आचरति) धर्म को भूल जाने वाला जीवन निर्भय और निरंकुश (स्वच्छन्द) होकर हिंसा पाप को करने लगता है। नतीजा यह होता है कि मद्यपायी मानव, द्रव्य और भाव दोनों हिंसा पाप को करने लगता है। ___भावार्थ - परिणाम (चित्त या भाव) खराब होने से भाव - हिंसा होती है और उन मदिरा आदि नशीले पदार्थो में अनगिनत जीवों का घात होने से द्रव्य हिंसा भरपूर होती है तथा बड़े - बड़े लोक निन्द्यकार्य और पारस्परिक द्रोह होते हैं आदि आठ लाइनों में इस पद्य का भावार्थ समाप्त होता है। (पुरुषार्थ पृ. 199) अनेक आचार्यों ने अपने अपने दृष्टिकोणों से मानव जीवन को पवित्र बनाने के लिए आठ मूलगुणों का प्रतिपादन अनेक प्रकारों से किया है। उनमें से सिद्धांतशास्त्री जी ने पाँच आचार्यो के मूलगुणों का दिग्दर्शन कराया है। उनमें से भी पण्डित प्रवर श्री आशाधर जी के मत से आठ मूलगुणों का उल्लेख किया जाता है - (1) मद्य - त्याग (2) मांस - त्याग (3) मधु (शहद) त्याग, (4) बड़, पीपल आदि पाँच उदम्बर फलों का त्याग, (5) रात्रि भोजन त्याग, (6) परमात्मा का दर्शन पूजन, (7) जीवरक्षा करना, (8) वस्त्र से जल छानकर उपयोग करना । इन मूलगुणों को आचरण करना प्रत्येक सद्गृहस्थ का कर्त्तव्य हैं। (पुरुषार्थ पृ. 198) इस समय आत्मपरिणाम के अनुसार हिंसा-अहिंसा के फल की विचित्रता को दर्शाते हैं : अविधायापि हि हिंसा, हिंसाफल भाजनं भवत्येक :। कृत्वाषपरो हिंसा, हिंसा फल भाजनं न स्यात् ।।5।। (पुरुषार्थसिद्ध सिद्ध युणायश्यों. 51) अन्वय अर्थ :- आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि (एकोहिहिंसा अविधायापि हिंसाफलभाजनं भवति) निश्चय से एक पुरुष जीव-हिंसा को नहीं करने पर भी हिंसा के फल को भोगता है और दूसरा व्यक्ति (अपर:हिंसा कृत्वा अपि हिंसाफ़लभाजनं न स्यात्) हिंसाको करके भी हिंसा के फल को प्राप्त नहीं होता है क्योंकि उसके भाव (चित्तके विचार) जीव-हिंसा के नहीं है, किन्तु सुरक्षा के थे। प्रथम पक्ष का उदाहरण - जो धीवर मछलियों को मारने का संकल्प कर चुका है, परन्तु कारण वश वह मछलियां नहीं मार पाया, तो भी वह हिंसा के फल को प्राप्त होता है हिंसा भावों के कारण । तथा एक डॉक्टर (329) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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