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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ को 51000 रुपये की नगद राशि एवं विद्वत रत्न की उपाधि से सम्मानित किया गया। इसी वर्ष से पंडित जी ने अपने वेतन का त्यागकर विद्यालय में आजीवन नि:शुल्क सेवा करने का संकल्प लिया जो उनकी निस्पृहता का परिचायक है। . पंडित जी का जीवन मान अपमान से परे था । पंडित जी ऐसे विनम्र थे कभी किसी से ऊँची आवाज में बात नहीं करते थे उनकी गर्दन सदैव झुकी रहती थी। इसलिए उनके शरीर पर भी इसका प्रभाव पड़ा और उनकी गर्दन झुकने लगी जिससे ऐसा प्रतीत होता था कि वह नम्रीभूत होकर झुक रही हो । वह प्रतिदिन भक्ति में तन्मय होकर एक डेढ घंटे खड़े होकर पूजन किया करते थे। इसलिए अंतिम समय में भी संस्था के जिनालय में भगवान बाहुबली स्वामी का मस्तकाभिषेक का कार्यक्रम पूर्ण नहीं हो गया, तब तक उनकी सांसे चलती रही कि शायद हमारी श्वांस रुकने से कहीं अभिषेक महोत्सव में व्यवधान उत्पन्न न हो जाये इसलिये अभिषेक पूर्ण होने के पश्चात ही उन्होंने इस संसार से प्रयाण किया । पंडित जी श्रेष्ठ साहित्य मनीषी थे तभी तो उनके द्वारा लिखा गया शोध ग्रन्थ जैन पूजन महाकाव्य एक चिंतन पर डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर द्वारा पीएच. डी उपाधि प्राप्त की और जिसके प्रकाशन का गौरव भारतीय ज्ञान पीठ नई दिल्ली जैसी उत्कृष्ट साहित्य संस्था ने प्राप्त किया। पंडित जी का हमारे ऊपर बड़ा ही धर्मानुराग और स्नेह था तभी तो उन्होंने हमें स्वयं कमरे पर बुलाकर जैन पूजन महाकाव्य एक चिंतन की एक प्रति अपने हाथों से भेंट की यह मेरा परम सौभाग्य है। मेरी ऐसी भावना हुई कि उनकी इस कृति पर मैं उनसे हस्ताक्षर करवा लूं लेकिन यह बात अधूरी रह गयी।
अंत में मैं श्रद्धेय पंडित जी के चरणों में अपने श्रद्धा सुमन समर्पित करते हुए अपनी भाव भीनी श्रृद्धांजलि अर्पित करता हूँ। और यही भावना भाता हूँ कि उनकी आत्मा को सद्गति और उनकी स्मृतियों की कीर्ति दिगदिगंत तक फैली रहे ।
ओम शांति ।
पंडित दयाचंद साहित्याचार्य हमारे ज्ञान प्रदाता
संतोष जैन (एम.कॉम. एल.एल.बी.)
ट्रस्टी भाग्योदय तीर्थं, सागर आप विद्वान परिवार में जन्में शाहपुर (गनेशगंज) निवासी श्री भगवान दास जी भाई जी के तृतीय सुपुत्र थे। भाईजी के पाँच पुत्र थे पाँचों ही विद्वान जिनमें से पंडित अमरचंद जी प्रतिष्ठाचार्य देश के जाने माने विद्वान प्रतिष्ठाचार्य है। भाई जी साहब के प्रथम पुत्र पंडित माणिकचंद जी जो वर्णी भवन मोराजी में ही अपने अंतिम सांस तक छात्रों को शिक्षा देते रहे । द्वितीय पुत्र श्रुत सागर जी, तृतीय पं. दयाचंद
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