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________________ शुभाशीष/श्रद्धांजलि साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अनुशासन प्रिय पंडित जी पूर्णचंद जैन "पूर्णेन्दु" शास्त्री अज्ञानतिमिरान्धानां, ज्ञानांजन शलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ डॉ. पं. दयाचंद जी साहित्याचार्य जिन्होंने मुझ जैसे अनेक शिष्यों को ज्ञानदान द्वारा प्रबुद्ध बनाया ऐसे उन गुरु के चरणों में अपनी विनम्र श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ। विगत पाँच दशकों से अधिक समय तक श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय, सागर में अपनी बहुमूल्य सेवाएँ दी । वे गृहप्रबंधक से लेकर अध्यापक एवं प्राचार्य जैसे गुरुता पूर्ण महनीय पदों पर आसीन रहे। जीवन के अनेक उतार - चढ़ावों को पार करने वाले कर्मठ, सरल, सजग, अनुशासनप्रिय , स्वाभिमानी किन्तु निरभिमानी व्यक्तित्व के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए ज्ञातव्य है कि पूज्य पण्डित जी से मेरा परिचय गुरु शिष्य परम्परा के नाते सन् 1951 - 52 में हुआ | जब मैं प्रवेशिका कक्षा का विद्यार्थी था । प्रवेक्षिका चतुर्थ खण्ड एवं प्रथम परीक्षा के दौरान प्रत्यक्ष परिचय हुआ, जहाँ उन्होंने अध्यापन के द्वारा व्याकरण +अनुवाद आदि को जो रचनात्मक ज्ञान कराया वह आज भी अविस्मरणीय है। मैं पूर्व मध्यमा तक श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर में अध्ययनरत रहा जहाँ मैंने पूज्य पंडित जी के सानिध्य में व्यायाम, योगासन, लेझम, डंबल तथा खेल की अनेक विधायें सीखने को मिली। सन् 1956 में अग्रिम अध्ययन हेतु श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी चला गया जहाँ रहकर मैंने साहित्यशास्त्री, सिद्धांतशास्त्री, साहित्य रत्न एवं बी.ए. की उपाधियाँ प्राप्त की लेकिन इस अंतराल में पंडित जी से निरंतर सम्पर्क बना रहा । सन् 1961 में मैंने मध्यप्रदेश शासन में शिक्षा विभाग में शासकीय सेवा प्रारंभ कर सन् 2000 में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुआ । इस अवधि में भी मुझे पूज्य पंडित जी के सानिध्य का सतत लाभ मिला। सन् 1963 में जब श्री वर्णी स्नातक परिषद का गठन किया गया उस समय पंडित जी का आशीर्वाद, सहयोग सराहनीय रहा । सन् 1968 में विद्यालय में पुन: परिषद का अधिवेशन हुआ जिसमें मुझे वर्णी स्नातक परिषद का संयोजक बनाया गया। तब पंडित जी का अभूतपूर्ण सहयोग रहा। जब मुझे परिषद का मंत्री मनोनीत किया गया। उस समय पंडित जी से मैंने स्नातक परिषद के उपाध्यक्ष पद स्वीकार करने का अनुरोध किया तो उन्होंने बड़ी सहजता एवं आत्मीयता से इसे स्वीकार किया, तब से अब तक वे परिषद के उपाध्यक्ष रहे । वे अत्यंत सरल स्वभावी जीव थे। जब भी कोई प्रस्ताव उनके समक्ष रखा गया उन्होंने सहजता से उस प्रस्ताव का अनुमोदन कर दिया । वे स्वाभिमानी व्यक्ति होते हुए भी सदैव निरभिमानी रहे। उनसे "घमण्ड' नाम की बात तो कोसों दूर रहती थी । पंडित जी ने जहाँ प्रारंभिक जीवन में अपनी भूमिका के अनुरूप 'वज्रादपि कठोराणि' को चारितार्थ किया। (सुबह 4 बजे से 8 बजे तक छात्रों को कठोर अनुशासन में रखते थे) वहीं अध्यापक के रूप में मृदुनि कुसुमादपि का व्यवहार करते थे। पू. पंडित जी सतत स्वाध्याय एवं अध्ययन द्वारा अपनी योग्यता में निरंतर वृद्धि करते रहे उन्होंने (39) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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