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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अमृतचन्द्र आचार्य कहते है कि लिपि के अनेक अक्षरों के द्वारा पद-रचना, पद-रचना से वाक्य-रचना, और वाक्य-रचना से यह लघु शास्त्र रचना हो गई, इसमें हमने कुछ भी नहीं किया है। भाषाटीकाकार श्री वर्णी जी की नम्रता :
तरह-तरह के वर्षों से ही, पद बनते हैं नाना रूप, नाना रूप पदों से बनते, वाक्य अनेक प्रकार सरूप । वाक्यों से ही शास्त्र बनते, हैं नहीं बनाने वाले हम, यह सत्यारथ बात कहीं है, कर्ता हमें न मानो तुम ॥226॥
(पुरुषार्थ पृ. 435-436) उपसंहार
अध्यात्म गगन के प्रतिभाशाली आचार्य अमृतचन्द्र ने 'जिन-प्रवचन रहस्यकोष' (पुरुषार्थ सिद्धियुपाय) ग्रन्थ की रचना कर गागर में सागर ही मानों भर दिया है । इस ग्रन्थ की प्रतिपादन शैली और शब्द-रचना शैली आश्चर्यजनक है । सिद्धान्तसार यह ग्रन्थ अनेकान्तवाद और स्याद्वाद वाचक के सम्बन्ध से परिपूर्ण है । इसका रांधेलीय जी ने अनुशीलन किया है। स्वानुभव के आधार पर आपने इस ग्रन्थ का हिन्दी पद्यानुवाद एवं भाव-प्रकाशिनी टीका का निर्माण किया है। ग्रन्थ के अनुसार शास्त्री जी अनेकान्त सिद्धान्त के उपासक थे। प्रारंभ में आत्म निवेदन प्रकरण में आपने लिखा है :- "मानव के उद्धार के लिये प्रारंभ से ही निश्चय और व्यवहार का ज्ञान तथा दोनों की संगति और हेय-उपादेयता बतलाई गई है अर्थात् भूमिका की शुद्धिपूर्वक तत्वों का निर्णय होने से ही प्राणी का उद्धार हो सकता है अन्यथा नहीं, चाहे वह कितना ही उपाय क्यों न करें, सब व्यर्थ हैं।" (आत्म निवेदन पृ. 4) ___ इसी प्रकार प्रस्तावना में भी शास्त्री जी ने दर्शाया हैं
"इस ग्रन्थ में निश्चय-व्यवहार में भेद-लक्षण तथा व्यवहार की कथंचित् उपादेयता की सीमा, दोनों का ज्ञान हो जाने पर समता भाव (मध्यस्थता) तथा उससे होने वाला लाभ बताया गया है उत्थानपतन का निदानपूर्वक क्रमश: वर्णन हैं।" (प्रस्तावना पृ. 6)
सिद्धान्तशास्त्री जी ने 26 सन्दर्भ ग्रन्थों के अनुशीलन से इस भाव प्रकाशिनी टीका का निर्माण किया है । अत: पूजनीय पंडित जी के चरणों में विनयपूर्वक नमन करता हुआ, मैं सम्यक परिवेक्षण (टीका) का समापन कर रहा हूँ।
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