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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ___ इसी प्रकार ईश्वरवादी - अनीश्वरवादी, सत् = असत्वादी, एक - अनेकवादी, सामान्य, विशेषधर्मवादी, आत्मवादी-अनात्मवादी, भौतिकवादी, चैतन्यवादी आदि अनेक दर्शनकारों के मध्य अनेकान्तवाद (स्याद्वाद) समंवय या मैत्री भाव स्थापित करता है। सारांश यह कि स्यादवाद निर्दोषवचन शैली को और अनेकान्त वस्तु के अनेक धर्मत्व को सिद्ध करता है। इसी उभय शैली के प्रभाव से मतान्तरों की मैत्री, समस्याओं का समाधान, विचारों का संशोधन, हिंसा , अन्याय आदि दुष्कृतों का निराकरण और राष्ट्र एवं समाजों का स्थितिकरण तथा संरक्षण होता है। दार्शनिक लोक में अनेकान्तवाद का प्रभाव :
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेष: कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्य: परिग्रह : ।।
(हरिभद्रसूरि) भगवान महावीर तीर्थकर की शिष्य परम्परा के आचार्य हरिभद्र कहते है कि हमारा महावीर में पक्षपात नहीं है और न कपिल आदि ऋषियों में द्वेषभाव है, किन्तु जिसके युक्ति और प्रमाणपूर्ण वचन है, आत्महित के लिये उन वचनों को अवश्य ग्रहण कर लेना चाहिये । इस नीति के अनुसार पक्षपात या व्यामोह रहित होने से अनेकान्तवाद के द्वारा, परस्पर विरूद्ध सिद्धांतवादी दर्शनों का एवं सम्प्रदायों का समंवय सिद्ध हो जाने पर उसका उन दर्शनों में प्रभाव स्वयंमेव प्रसिद्ध हो जाता है ।लोक का संयोग - वियोग रूप परिवर्तन सापेक्ष, पारस्परिक व्यवहार और विश्व की व्यवस्था स्याद्वाद के माध्यम से ही होती है । अन्यथा लोक व्यवहार में विरोध उपस्थित हो जायेगा । अतएव लोक की स्थिति को देखकर उसको "दुनिया" (दो नयवाली) कहते हैं।
प्राय: सभी दर्शन नयवाद (स्याद्वाद) के द्वारा प्रभावित देखे जाते हैं जैसे ऋजुसूत्र (वर्तमान ग्राही) नय से बौद्धदर्शन, संग्रहनयवाद से वेदान्तदर्शन, नैगमनयवाद से न्यायदर्शन एवं वैशेषिक दर्शन, शब्दनय से शब्दब्रह्म दर्शन, व्यवहारनय से चार्वाकदर्शन प्रमाणित है।
भगवान महावीर तीर्थकर के समय अनेकान्तवाद से क्रियावादी प्रभृति 363 सम्प्रदाय प्रभावित हुए थे। (अहिंसा दर्शन पृ. 299-300)
अपि च - नित्यैकान्तवादी इन्द्रभूति आदि।। दार्शनिक विद्वान, उच्छेदवादी अजित केशकम्बलि आदि दार्शनिक विद्वान भ. महावीर के अनेकान्तवाद से प्रभावित हुए थे अतएव इन्द्रभूति आदि दार्शनिक विद्वान साक्षात् महावीर स्वामी के निकट ही मुनिधर्म में दीक्षित होते हुये गणधर पद पर आसीन हुए थे, उसी समय श्रावणकृष्ण प्रतिपदा के प्रात: भ. महावीर की दिव्यदेशना का शुभारंभ हुआ था। (जैनदर्शन पृ. 59)
भारतीय दर्शनशास्त्र, प्राचीन वेद, उपनिषद् आदि में विश्व के आदिम तत्व के विषय में सत् - असत् -उभय - अनुभय इस प्रकार चार भेदों के द्वारा निश्चय किया गया है । यहाँ पर भी स्यावाद शैली (विवक्षाशैली) के द्वारा ही पदार्थ में परस्पर विरूद्ध धर्मो का निर्णय जानना चाहिये, अन्यथा वस्तुतत्व का निर्णय परस्पर विरूद्ध होने से अशक्य हो जायेगा।
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