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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ ज्ञान एवं संस्कृति की परम्परा प्रवाहित होती है। गुरू के लक्षण इस प्रकार हैं -
"श्रुतमविकलं शुद्धा-वृत्ति: पर- प्रतिबोधने ।
परिणति-सदुद्योगो, मार्गप्रवर्तन-सद्विद्यौ ॥" सारांश - जो समस्त सिद्धान्त का ज्ञाता हो, मन, वचन, काय की पवित्र प्रवृत्ति वाला, शिष्य को सम्बोधित करने में प्रवीण, धार्मिक, नैतिक शिक्षा देने में अति प्रयत्नशील, अन्य विद्धान के द्वारा प्रशंसनीय, अन्य विद्धानों की प्रशंसा विनय करने में दक्ष, अभिमान से रहित, लोकव्यवहार का ज्ञाता, सरल, परिणामी, लोकपूज्यता से हीन, परोपकार आदि श्रेष्ठ गुणवाला, हेयोपादेय के विवेक से परिपूर्ण ,प्रश्नों का शान्ति के साथ उत्तर देनेवाला हो; वह गुरू के योग्य है। योग्य शिष्य के गुण
"शुश्रुषा श्रवणं चैव, ग्रहणं धारणं तथा ।
स्मृत्यूहापोहनिर्णीति:श्रोतुरष्टौ गुणान् विदुः ॥" सारांश - शिष्य के आठ गुण होते हैं - (1) सुश्रुषा (विनय), (2) श्रवण (चित्त से सुनना), (3) ग्रहण करना, (4) धारण (याद करना), (5) स्मरण करना, (6) प्रश्नोत्तर करना, (7)सत्यासत्य का निर्णय करना, (8) हठाग्रह का त्याग । - इन गुणों से सम्पन्न गुरू और शिष्य के द्वारा ही श्रद्धा-ज्ञान-आचरण की परम्परा सतत् अक्षुण्ण रहती है। -(आचार्य गुणभद्रः आत्मानुशासन, पृ. 5-6)
पूज्य वर्णी जी ने उपरिकथित गुरू-शिष्य-परम्परा का ही निर्वाह किया है, जैनदर्शन पर अटल श्रद्धा के साथ न्यायाचार्य जी ने अपने परीक्षाप्रधानत्व गुण के कारण ही भारतीय चार्वाक, बौद्ध, न्याय,वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, जैनदर्शनों का अध्ययन कर युक्ति एवं प्रमाण से निर्णीत जैनदर्शन पर ही स्वकीय आस्था को सुदृढ़ किया था। इस परीक्षाप्रधानता की प्रेरणा वर्णी जी ने श्री हरिभद्रसूरि के इस श्लोक से प्राप्त की थी।
"पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेष: कपिलादिषु ।
युक्तिमवचनं यस्य, तस्य कार्य: परिग्रह : ॥ तात्पर्य - आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि हमारे हृदय में न महावीर में प्रेम है और न कपिल, कणाद, बुद्ध आदि के प्रति द्वेष है, परन्तु परीक्षाप्रधानी प्रबुद्ध मानव को या हमारे द्वारा प्रमाण एवं युक्तिपूर्ण सिद्धान्त ही ग्राह्य है। न्यायाचार्य जी ने समाज के उत्थान के लिये मानव शिक्षा के समान स्त्री-शिक्षा को भी महत्व प्रदान किया । आपने सामाजिक विकास के लिये विभिन्न स्थानों में महाविद्यालय, विद्यालय, पाठशाला, इन्टर कॉलेज और गुरूकुलों तथा उदासीन आश्रमों की स्थापना कर शिक्षा का प्रसार किया । हम पूज्य वर्णी जी के प्रति अतिकृतज्ञता से विन्रम है।
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