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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ हिन्दूधर्म में माना गया है कि मुक्त हुआ जीव ब्रह्म में लीन होता हुआ वैकुण्ठ में बहुत समय तक सुख भोगता है। जैनदर्शन की मान्यता है कि स्वतंत्र मुक्त जीव लोक के अग्रभाग में नित्य विराजमान रहकर लोक का ज्ञाता, दृष्टा, सुखी और शक्तिशाली बना रहता है। वैदिक दर्शन में धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, स्याद्वाद और कर्मवाद नहीं माने गये है और जैनदर्शन में ये सभी माने गये हैं। __ जैनदर्शन में सुषम-सुषमा, सुषमा,सुषमदुःषमा, दुःषमसुषमा, दुःषमा और दुःषम दु:षमा ये छह युग माने गये हैं और हिन्दूधर्म में सतयुग, त्रेतायुग द्वापरयुग और कलियुग ये 4 युग माने गये हैं। जैनदर्शन में परमात्मा (ईश्वर) अनंत माने गये हैं और वे संसारी भव्य जीव ही बन जाते हैं। वैदिक दर्शन में अनादि निधन एक ही परमात्मा माना गया है। संसारी जीव उसी के अंग है और मुक्त होने पर उसी में लीन हो जाते हैं। कोई भी जीव स्वतंत्र परमात्मा नहीं होता है। जैनधर्म में चार वेद (शास्त्र) माने गये हैं। 1. प्रथमानुयोग, 2. करणानुयोग, 3. चरणानुयोग, 4. द्रव्यानुयोग । इनको अनुयोग भी कहते हैं। हिन्दूधर्म में भी चार वेद माने गये हैं -1. ऋग्वेद, 2. यजुर्वेद, 3. सामवेद, 4. अथर्व वेद । ___ इस जैनदर्शन में चौबीस तीर्थंकर माने गये हैं, ये संसारी भव्यप्राणी ही अपने सच्चे पुरुषार्थ से तीर्थंकर बनकर आगे मुक्त बनजाते है। वे फिर कभी इस विश्व में आकर अवतार नहीं लेते। वैदिक दर्शन में माना गया है कि वह अनादि निधन एक ईश्वर ही चौबीस अवतार ग्रहण करता है और वे अवतार फिर ईश्वर रूप हो जाते हैं । इस प्रकार जैनधर्म और हिन्दूधर्म में मौलिक भेद होते हुए भी सभ्यता, लौकिकव्यवहार और राष्ट्रीय दृष्टि से समानता दृष्टिगोचर होती है। इसलिए दोनों धर्म के उपासकों को मैत्रीभाव धारण करते हुए सत्य की उपासना करना आवश्यक है। जिससे कि राष्ट्र एवं समाज में सुख शांति का राज्य होवे। 383 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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