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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जैनधर्म के अंतर्गत विश्वकल्याण एवं अखण्ड राष्ट्रसेवा
24 तीर्थंकरों और उनकी आचार्य परम्परा द्वारा जैनग्रन्थों में विश्वकल्याण एवं अखण्ड राष्ट्र सेवा के लिए मानव समाज को शत्शत् उद्बोधन दिये गये हैं। उनमें से कतिपय प्रमुख उद्बोधन प्रस्तुत किये जाते है जो राष्ट्र के लिए हितकर और मानव समाज के आवश्यक कर्तव्य हैं - 1. विक्रम सं. 308 में श्री पूज्यपाद आचार्य द्वारा अखण्डराष्ट्र सेवा के लिए उद्बोधन :
क्षेमं सर्वप्रजानां, प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल: काले काले च सम्यक्, विकिरतु मघवा, व्याधयोयान्तुनाशम्। दुर्भिक्षं चौरमारी, क्षणमपि जगतां, भास्मभूज्जीव लोके जैनेन्द्रं धर्मचक्रं, प्रभवतु सततं, सर्वसौख्यप्रदापि ॥ सम्पूजकानां प्रतिपालकानां, यतीन्द्र सामान्य तपोधनानाम् । देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्यराज्ञः, करोतु शांतिं भगवान् जिनेन्द्रः ॥ मुनि श्री अजितसागर महाराज द्वारा संग्रहीत - प्रजानां क्षेमाय, प्रभवतु महीश: प्रतिदिनम् सुवृष्टिः संभूयाद, भजतुशमनं व्याधिनिचयः। विधत्तां वाग्देव्या, सह परिचयं श्रीरनदिनं मतंजैनं जीयात्, विलसतु च भक्ति र्जिनपतौ॥ सन् 1955 - जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' देहली - हो सबका कल्याण भावना ऐसी रहे हमेशा दया लोकसेवारत चित हो, और न कुछ आदेश ॥1॥ इस पर चलने से ही होगा, विकसित भारत देश । आत्मज्योति जागेगी ऐसे, जैसे उदित दिनेश ॥2॥ यही है महावीर संदेश। अखण्डमानवता से ही अखण्ड राष्ट्र का निर्माण - श्री जिनसेन आचार्य - मनुष्य जाति रेकैव, जाति कर्मोदयोद्भवा । वृत्तिभेदाहिवाद् भेदात्, चातुर्विध्यमिहाश्नुते ॥1॥
तात्पर्य - वस्तुतः सब मनुष्यों की एक ही मानव जाति इस धर्म को अभीष्ट है जो मनुष्य जाति नामक नामकर्म के उदय से होती है । इस दृष्टि से सब मानव समान हैं। अर्थात् आपस में भाई-भाई हैं और उनको जैनधर्म के द्वारा अपने विकास का पूर्ण अधिकार है। इसलिए मानवता की एकता से राष्ट्र की एकता है।
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