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________________ कृतित्व / हिन्दी पूर्व मीमांसावैदिक दर्शन की मान्यता - साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ न कर्तृत्वं न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफल संयोगं, स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ (गीता) अर्थ - ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं है न जगत् के कार्यो का (जल, वर्षा, ऋतु आदि का) कर्ता है, न प्राणियों के कर्मफल संयोग का कर्ता है किन्तु जगत् और उसके कार्य स्वाभाविक ही होते रहते है। जैसे जल वृष्टि, शीत आदि । कुछ कार्य प्राणी अपनी इच्छा से करते हैं जैसे घर रोटी आदि । जैन दर्शन की मान्यता है कि संसारी प्राणी मन-वचन - शरीर की क्रिया से तथा रागद्वेष अज्ञान भावों कर्मपरमाणुओं का आत्मा में बंध करते है। और उन पुण्यपाप कर्मो का फल सुख, दुख को स्वयं भोगते हैं। गीता में वैदिक दर्शन की भी मान्यता है - नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । " अज्ञानेनावृतं ज्ञानं, तेन मुह्यन्ति जन्तवः ||15-511 अर्थ - ईश्वर न किसी प्राणी के पुण्य पाप को बनाता है और न ग्रहण करके उनको सुखदुख फल देता है । अज्ञान से प्राणियों का ज्ञान या विवेक, दूषित हो रहा है इससे प्राणी सुखदुख फल को भोगते हैं, जन्म मरण करते हैं । जैनदर्शन में परमात्मा की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा जल चंदन आदि आठ द्रव्यों से की जाती है और हिन्दू धर्म में ईश्वर की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा जल फूल आदि द्रव्यों से की जाती है। जैनदर्शन में वेद स्मृति और ब्राह्मण ग्रन्थों को प्रमाण नहीं माना गया है और हिन्दु धर्म में प्रमाण माना गया है। ये ग्रन्थ ही हिन्दू धर्म के मुख्य आधार हैं। जैनदर्शन के धार्मिक सिद्धांत, तत्त्व और उनके मार्ग निश्चित हैं परन्तु हिन्दू धर्म में परस्पर विरोधी अनेक सिद्धांत और उनके मार्ग हैं। वैदिक दर्शन में युग-युग में जगत् की सृष्टि ओर प्रलय माना गया है और जैनदर्शन में स्वयं परिवर्तनशील होते हुए जगत् को परम्परा से अनादि अनंत माना गया है। हिन्दूदर्शन में सनातन वैदिक धर्म को ईश्वर की प्रेरणा से ब्रह्मा द्वारा कथित माना गया है और जैनदर्शन में उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणीकाल में होने वाले तीर्थङ्करों द्वारा सत्यधर्म का विकास माना गया है। हिन्दू धर्म में देवताओं द्वारा मोक्ष प्राप्त करना माना गया है और जैनदर्शन में किसी भी भव्य मानव द्वारा रत्नत्रय की साधना से मोक्ष प्राप्त करना माना गया है। Jain Education International हिन्दूधर्म में ईश्वर द्वारा प्रदत्त पुण्यपाप की क्रिया को कर्म और उसका फल सुख-दुख माना गया है। धर्म में माना गया है कि जीव के भाव एवं क्रिया द्वारा प्राप्त किये गये कर्मरूप सूक्ष्म परमाणुओं का संयोग जीव के साथ होता है और उन कर्म परमाणुओं का फल सुख-दुख, जीव स्वयं प्राप्त करता है। 382 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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