________________
कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जैनधर्म सत् और जगत्
जगत् की प्रत्येक वस्तु उत्पत्ति विनाश ओर नित्यता ये तीन क्रिया एक साथ पाई जाती है इसलिए वस्तु सत् रूप है ।जो वस्तु (मौजूद) है उसका मूलत: विनाश कभी नहीं होता और उसकी दशायें अवश्य उत्पन्न तथा नष्ट होती रहती है । इसी प्रकार जो वस्तु असत् (नहीं) है उसकी कभी उत्पत्ति नहीं हो सकती है जैसे आकाश का फूल, खरगोश का सींग इत्यादि । इस जगत् की मुख्य द्रव्य दोनों जीव-अजीव सत् रूप होने से अनादि अनंत सिद्ध हो जाती हैं अतएव द्रव्य का समूह रूप जगत् भी अनादि अनंत है। यह सिद्ध होता है कि ईश्वर जगत का कर्ता धर्ता नहीं है। वैदिक दर्शन में सत् और जगत् -
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत: ।
उभयोरपि दृष्टान्तस्त्व नयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ गीता 16-2॥ अर्थ- असत् वस्तु (जो नहीं है) कभी पैदा नहीं हो सकती और सत् (जो है) वस्तु का कभी नाश नहीं हो सकता। तत्त्वदर्शियों ने इन दोनों के धर्म को जाना है इससे सिद्ध है कि वस्तु या द्रव्य का समूह रूप जगत् भी सत् है उसका कभी नाश नहीं हो सकता। परन्तु वस्तु की दशा में परिवर्तन अवश्य होता रहता है अत: जगत् अनादि और अनंत है पूर्व मीमांसा वैदिक दर्शन भी यही कहता है कि ईश्वर जगत् का कर्ता धर्ता नहीं है। जैनदर्शन में आत्मा की रूपरेखा -
निजानन्दमयं शुद्धं निराकारं निरामयम् ।
अनंतसुख सम्पन्नं सर्वसङ्ग विवर्जितम् ॥ यह आत्मा आनंदमय, शुद्ध निराकार, निरोग, अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख, शक्ति से सहित, जन्म जरा मरण, राग द्वेष , मोह आदि 18 दोषों से रहित निर्मल हैं। वैदिक दर्शन में आत्मा -
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा वा न भूयः ।
अजोनित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ यह आत्मा न जन्म लेता है, न मरता है, न यह नष्ट होता है, न पैदा होता है। यह आत्मा नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नाश होने पर भी वह नाश नहीं होता। जैनदर्शन में ईश्वर कर्तृत्वाभाव -
__ जैनदर्शन की मान्यता है कि परमात्मा, शुद्ध कृतकृत्य, अनंतज्ञानी, अनंतशक्तिमान, परमानंद सम्पन्न और विश्वदर्शक है । वह जगत् को नहीं बनाता है, न संरक्षक है और न विनाशक है। जगत् के पदार्थो की उत्पत्ति तथा विनाश स्वभाव (प्रकृति) से होता है।
-380
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org