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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सीमित है। किन्तु यह आत्मा प्राणी के सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होकर रहता है उसका आकार किसी भी प्राणी के शरीर के आकार मात्र है। विज्ञान वेत्ताओं की मान्यता -
आत्मा के आकार व रहने के स्थान विशेष के सम्बंध में मनोवैज्ञानिकों ने कितने ही अनुसंधान किये हैं जिनमें से श्री मेहर अपनी मनोविज्ञान सम्बंधी पुस्तक में लिखते हैं - "आत्मा एक अभौतिक शक्ति है, विद्वानों के शब्दों में कहा जाता है कि आत्मा, जिससे शरीर में स्फूर्ति आती है, सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। यह शरीर को आवृत किये हुए नहीं है वरन् शरीर में सीमित है।"
___ "आत्मा के आकार के विषय में प्राचीन यूनान व रोमवासियों का भी यही मत था कि आत्मा शरीर के आकार मात्र है और शरीर की वृद्धि व संकोच के साथ-साथ आत्मा का आकार भी विस्तरित या संकुचित होता रहता है।" कर्म सिद्धांत की वैज्ञानिक व्याख्या -
"विज्ञान की पुस्तकों से यह भलीभाँति जाना जा सकता है कि भौतिक दो पदार्थो के परस्पर संघर्षण से उष्णता शक्ति उत्पन्न हो जाती है, डायनमो आदि यंत्रो के द्वारा विद्युत आदि शक्तियाँ उत्पन्न की जाती हैं। जो कुछ समय तक स्थिर रहकर आकाश में लुप्त हो जाती है, अथवा जैसे सिर के केशों में सेलूलायड का कंघा करने से कंघे में आकर्षण शक्ति उत्पन्न हो जाती है जिसके कारण वह कंघा रूई के बारीक तंतुओं को या बारीक कागज आदि को खींचने लगता है, यह शक्ति कुछ समय तक ही रहती है। इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति मन, वचन या शरीर से कोई कार्य करता है तो उसके समीपवर्ती चारों ओर के सूक्ष्म परमाणुओं में हलनचलन किया उत्पन्न हो जाती है । विज्ञान के आविष्कार वेतार के तार, रेडियो आदि के कार्य से निर्विवाद सिद्ध है कि जब कोई कार्य करता है तो उसके समीपवर्ती वायु मण्डल में हलन-चलन क्रिया उत्पन्न हो जाती है और उससे उत्पन्न लहरें चारों ओर को बहुत दूर तक फैल जाती हैं। इन्हीं लहरों के पहुंचने से शब्द, बिना तार के रेडियो द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँच जाते है । इसी प्रकार समीपवर्ती परमाणु आत्मा की ओर आकर्षित होते हैं। उनमें उस व्यक्ति के कर्मानुसार फल देने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है । इन कर्मशक्ति युक्त परमाणुओं का, दध पानी की तरह एक क्षेत्र में रहने वाला सम्बंध आत्मा के साथ हो जाता है एवं ये कर्म शक्ति युक्त परमाणु पूर्वकाल में विद्यमान सूक्ष्म कार्माण शरीर में सम्मिलित हो जाते हैं। कुछ समय पश्चात् जब ये कर्म परमाणु कार्यान्वित होते हैं तो उनका प्रभाव उस व्यक्ति पर पड़ने लगता है।" (आत्मरहस्य पृ. 95-96) विज्ञान के इस नियम से सिद्ध होता है कि जगत् को कोई व्यक्ति न रचता है ओर न नष्ट करता है किन्तु सब वस्तुओं में स्वयमेव परिवर्तन अवश्य होता है, इस विश्व की परम्परा का आदि अंत नहीं।
न्याय और वैशेषिक दर्शन में शब्द को आकाश का अमूर्तिक गुण कहा गया है जो युक्ति एवं विज्ञान से सिद्ध नहीं होता। जैनदर्शन में शब्द को एक जाति के पुद्गल (जड़) की दशा कहा गया है जो मूर्तिक तथा कर्ण (कान) इन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य है। जिसकी तरंगे सब ओर फैलती है।
विज्ञान के आविष्कार ग्रामो फोन, रेडियो, टेलीग्राफ, टेलीफोन,कर्णयंत्र आदि यंत्रों द्वारा शब्द सुने
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