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कृतित्व / हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
हैं जो अजर, अमर, सूक्ष्म अरूपी अदृश्य और निर्मल निर्दोष है परन्तु वर्तमान में अपने कर्मदोषों से शारीरिक कष्ट उठा रहा है।
विज्ञान -
"हम इस बात के मानने के लिए बाध्य हैं कि मानसिक चेष्टाओं का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। वरन् ये एक ही पदार्थ या मूलतत्व की अवस्थाएँ विशेष है। हमको यह पदार्थ अमूर्तिक मानना होगा । क्योंकि यही पदार्थ मनुष्य के सम्पूर्ण ज्ञान का आधार है । इसलिए इस पदार्थ को मनुष्य की आत्मा कह सकते है । (वैज्ञानिक मैकडूगल)”
मानव शरीर में कुछ अज्ञात शक्ति काम कर रही है हम नहीं जानते वह क्या है ? मैं चेतना को मुख्य मानता हूँ, भौतिक पदार्थ को गौण । पुराना नास्तिकवाद चला गया है। धर्म आत्मा और मन का विषय है। और वह किसी प्रकार भी हिलाया नहीं जा सकता । (सर ए. एम. एडिस्टन)
“सत्य यह है कि विश्व का मौलिकतत्व जड़, बल या भौतिक पदार्थ नहीं है किन्तु मन व चेतन व्यक्तित्व है " ( जे. बी. एम.हेल्डन )
" जैसे मनुष्य दो दिन के बीच रात्रि में स्वप्न देखता है उसी प्रकार मनुष्य की आत्मा इस जगत् में मृत्यु व पुनर्जन्म के बीच विहार करती है । " ( सर आलीवर लाज)
"मेरी राय में केवल एक ही मुख्य तत्त्व है जो देखता है, अनुभव करता है, प्रेम करता है, विचार करता है, याद करता है आदि । परन्तु इस तत्त्व को अपने भिन्न-भिन्न कार्य करने के लिए भिन्न भिन्न प्रकार के भौतिक साधनों की आवश्यकता पड़ती है।" (डॉ. गाल )
"जड़वाद के जितने भी मत गत बीस वर्षों में रखे गये है वे सब आत्मावाद पर आधारित हैं, यही विज्ञान का अंतिम विश्वास है।" (साइंस एण्ड रिलीजन)
मनोविज्ञान -
‘पाश्चात्यदेशों में स्थापित 'मनोविज्ञान अनुसंधान समिति" के अनुसंधानों से निश्चय हो गया है कि मनुष्य शरीर में अदृश्य आत्मा है और यह आत्मा मृत्यु के पश्चात् भी जीवित रहता है। ज्ञान की अद्भुत शक्तियों से भरपूर है । मनोवैज्ञानिक श्री एफ. डब्ल्यू. एच मेयर्स ने (जो उपरोक्त समिति के संस्थापकों में से हैं और जिनके प्रयत्न व अनुसंधान से मनोविज्ञान सम्बंधी विषय को आधुनिक वैज्ञानिक युग में उचित स्थान मिला हैं) अपनी पुस्तक 'मानुषिक व्यक्तित्व एवं मृत्य के पश्चात् उसका अस्तित्व' में बहुत से अनुसंधान दिये हैं, जिनके अध्ययन से आत्मा के अस्तित्व व उसकी मानसिक शक्तियों के सम्बंध में बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त हो जाता है (आत्मरहस्य पृ. 33 )
जैनधर्म की मान्यता -
आत्मा एक अखण्ड अमूर्तिक द्रव्य है जिसमें निमित्त कारण से प्रकाश की तरह संकोच और विस्तार होता रहता है जो न मनुष्य आदि के शरीर से बाहर व्याप्त है और न शरीर के किसी विशेष भाग में
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