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________________ कृतित्व/हिन्दी जैनधर्म की वैज्ञानिकता जिन महात्मा या विज्ञान वेत्ताओं ने आत्मबल से अज्ञान अविश्वास भय हिंसा, क्रोध आदि दोषों पर विजय प्राप्त कर ली है । तथा जो सम्पूर्ण विज्ञान, दर्शन, शक्ति, आनंद आदि अक्षय गुणों से शोभित है उनको जिन अर्हन्त या जीवन्मुक्त कहते हैं। ऐसे जिन तीर्थंकर द्वारा कहा गया वस्तुस्वभावमय स्वयंसिद्ध धर्म जैन धर्म कहा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि धर्म वस्तु का स्वभाव स्वयं सिद्ध है उसको जिनदेव ने या अन्य किसी ने बनाया नहीं है । न बनाया जा सकता है। किन्तु कहा अवश्य जा सकता है। जैसे- अग्नि की उष्णता बनाई नहीं जा सकती है। कही अवश्य जा सकती है। सदैव महात्माओं ने धर्म नहीं बनाया है किन्तु धर्म ने महात्मा बनाये हैं यह बात विशेषतापूर्ण है । अव विचार करना है कि जैन धर्म वैज्ञानिक है या नहीं ? इस विषय पर विचार करने के पूर्व विज्ञान की व्याख्या पर विचार करना आवश्यक है। विकसित एवं निर्दोष विशिष्ट ज्ञान विज्ञान कहलाता है । अथवा वस्तु के विभिन्न स्वभाव या तत्वों की खोज करने वाला, जानने वाला ज्ञान विज्ञान कहलाता है। विज्ञान दो प्रकार का होता है । एक आध्यात्मिक दूसरा भौतिक । जो आत्मा की मान्यता या सत्ता को सिद्ध करता है । वह आध्यात्मिक विज्ञान है और जो आत्मा से भिन्न, अजीव (जड़) तत्वों की मान्यता या सत्ता सिद्ध करता है। वह भौतिक विज्ञान है । जैनधर्म आध्यात्मिक विज्ञान से परिपूर्ण है । साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ “अस्ति पुरुषश्चिदात्मा विवर्जितस्पर्शगन्धरस वर्णै: । गुणपर्ययसमवेतः समाहितः समुदयव्ययध्रौव्यैः ॥ 39 अर्थात् - इस जगत् में आत्मा या जीव नाम का एक द्रव्य है जो जानने देखने वाला है, जो शीत आदि स्पर्श, गंध, मधुर रस और काला आदि वर्णों से रहित है अरूपी, सूक्ष्म, अनेक गुणों तथा पर्यायों से सहित जो उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप दशाओं से सहित और इन्द्रियों के द्वारा अग्राह्य है तथापि अनुमान, श्रद्धा तर्क और स्वानुभव (निजज्ञान) द्वारा जानने योग्य है । इसको साहित्य एवं दर्शन के वेत्ताओं ने पुरुष भी कहा है। इस विश्व में आत्मा नाम के द्रव्य अनंत हैं जो शरीरधारी प्राणियों के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। यह संक्षेप में जैनधर्म का आत्मिक विज्ञान कहा गया है। आध्यात्मिक विज्ञान की तरह जैनधर्म भौतिक विज्ञान से भी भरा हुआ है। यद्यपि धर्म और विज्ञान शब्द के कहने से अथवा अर्थ के भेद से दोनों में भिन्नता दिखाई देती है । तथापि दोनों में ज्ञेय - ज्ञायक रूप सम्बंध अवश्य है । अर्थात् विज्ञान ज्ञायक ( जानने वाला) है। और धर्म ज्ञेय (जानने योग्य) है । यदि विज्ञान हो तो धर्म अंधकार में ही पड़ा रहेगा । अत: दोनों का सम्बंध मानना आवश्यक है। जैनधर्म - इस विश्व में आत्मा एक द्रव्य है जो स्वभाव से ज्ञान दर्शन, आनंद और शक्ति से सम्पन्न Jain Education International 391 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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