________________
आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ स्त्री पीहर, नरसासरे संयमियां थिरवास ।
ऐत्रणवे जलखामणा जो मण्डेचिरवास ॥ अर्थात् स्त्री का मायके रहना, पुरुष का ससुराल में रहना और साधुओं का एक स्थान पर रहना तीनों ही अनिष्टकारी हैं। हिन्दी के किसी कवि ने भी कहा है -
वहता पानी निर्मला, बंधा सो गंदा होय ।
साधु तो रमता भला, दाग न लागे कोय ॥ साधु व्रती श्रेष्ठ कहा गया है जो एक स्थान छोड़कर दूसरे स्थानों को जाता है। साधु के निवास के विषय में शास्त्रों में विशद विवेचन किया गया है । वे मुनिराज पहाड़ों पर ही पर्यंकासन अर्धपर्यंकासन व उत्कृष्ट वीरासन धारण कर व हाथी की सूंड के समान आसन लगाकर अथवा मगर के मुख का सा आसन लगाकर अथवा एक करवट से लेटकर अथवा कठिन आसनों को धारण कर पूर्ण रात्रि बिता देते है।।
भट्टाकलंकदेव साधु के योग्य निवास के संबंध में लिखते हैं “शय्या और आसन की शुद्धि में तत्पर साधु को स्त्री, क्षुद्र, चोर, महापापी, जुआरी, शराबी और पक्षियों को पकड़ने वाले पापी जनों के स्थान में वास नहीं करना चाहिए तथा श्रृंगार विकार, आभूषण, उज्ज्वल वेश, वेश्या की क्रीड़ा से अभिराम (सुन्दर) गीत नृत्य वावित्र्य आदि से व्याप्त शाला आदि में निवास का त्याग करना चाहिए। जो शयनासन शुद्धि वाले हैं संयतों को तो अकृत्रिम (प्राकृतिक) पर्वत की गुफा वृक्ष" साधु के उद्देश्य से नहीं बनाये गये हो और जिनके बनने बनाने में अपनी ओर से किसी तरह का आरंभ नहीं हुआ है ऐसे स्वाभाविक रीति से (अकृत्रिम) बने हुए पर्वत की गुफाएँ या वृक्षों के कोटर आदि तथा बनवाये हुये सूने मकान वसतिका आदि अथवा जिनमें रहना छोड़ दिया जाता है अथवा छुड़ा दिया जाता है ऐसे मोचिता वाप्त आदि स्थानों में रहना चाहिए।
वर्तमान में वसतिकाएँ निर्माण की होड़ लगी हुई है वह किसी भी नाम से निर्मित करायी जाये। हाँ गृहस्थ का आवास आठ दस कमरों का हो सकता है किन्तु मुनि की वसतिकाएँ बहुमजली इमारतों से युक्त विशाल परिसर में नाना विभागों से अलंकृत होने से ही गौरव है। तभी तो मुनि या आर्यिका पचास लाख या करोड़ों की परियोजना में जुटे हुए हैं। ऐसा करने में ही तो पूर्वाचार्यों के कथन का उल्लंघन कर अपना श्रेष्ठत्व स्थापित करने की सफलता है क्योंकि पूर्वाचार्यों ने तो गिरि कंदरा या वन में निवास करने को कहा हैं - शून्यघर पर्वतगुफा, वृक्षमूल, अकृत्रिमघर, श्मशानभूमि, भयानक वन, उद्यानघर, नदी का किनारा आदि उपयुक्त वसतिकाएँ है। बोधपाहुड में भी कहा है इनके अतिरिक्त अनुदिष्ट देव मंदिर, धर्मशालाएँ, शिक्षाघर आदि भी उपयुक्त वसतिकाएँ है।"
जिनेन्द्रमंदिरे सारे स्थितिं कुर्वन्ति येऽङ्गिन: । तेभ्य: संवर्द्धते धर्मो धर्मात्संपत परानृणाम् ॥
673
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org