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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ निमित्त अन्य पदार्थ और अनुमानादि के वाक्य सब कुछ मिथ्या हो जाना चाहिए। पर यह सब मिथ्या नहीं देखे जाते हैं। यही एकान्त मिथ्यात्व है जो कार्यकारी नहीं और पतन का कारण है।
"यदि कोई यहाँ शंका करे कि जिसको आप निमित्त कहते हैं, वह भी अपनी स्वतंत्रसत्ता, शक्ति, क्रिया की अपेक्षा उपादान ही है और इसी उपादान से कार्य की सिद्धि होती है। निमित्त न है और न उससे कार्य की सिद्धि की कल्पना भी होती है। इसलिए उपादान ही सर्वथा उपयोगी कार्यकारी है"।
उक्त व्यक्ति की यह शंका भी निर्मूल है क्योंकि यदि निमित्तकारण अपनी सत्ता, शक्ति, क्रिया की अपेक्षा उपादान रूप है तो अन्य पदार्थ की अपेक्षा वह निमित्त रूप अवश्य हो सकता है। जैसे रथकार अपनी सत्ता, शक्ति और क्रिया के प्रति वह स्वयं उपादान रूप है तो वह रथकार रथ के प्रति निमित्तरूप अवश्य है। इस प्रकार अपेक्षावाद या स्याद्वादशैली से विचार करने पर उक्त शंका निर्मूल हो जाती है । एक वस्तु में अपेक्षाकृत उपादान और निमित्त की मान्यता में कोई विरोध नहीं आता है। अत: उपादानैकान्त भी उपादेय
नहीं है।
निरपेक्ष उभयैकान्त में दोष -
यदि कोई व्यक्ति निमित्त तथा उपादान की पृथक् सत्ता तो स्वीकार करता है परन्तु दोनों में परस्पर कोई सम्बंध नहीं मानता है। दोनों निरपेक्ष कार्य के प्रति रहते है तो उसकी यह मान्यता भी भ्रमपूर्ण है । क्योंकि यदि दोनों निरपेक्ष कार्य के प्रति हैं कोई उनमें परस्पर सम्बंध नहीं है तो निमित्त उपादान इस व्यवहार का लोप हो जायेगा, अपने कार्य के प्रति ही तो उन दोनों वस्तुओं में निमित्त उपादान का व्यवहार होता है। वस्तु के असम्बंध में व्यवहार नहीं हो सकता। कार्य के प्रति कारणों का संयोग तथा वियोग होना प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है। निरपेक्ष मान्यता में मानव के इष्ट कार्यो की सिद्धि, नूतन आविष्कार और उद्योग का अभाव हो जायेगा। मानव का सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन, पतन के सन्मुख हो जायेगा । अकर्मण्यता का ताण्डव विश्व में दिखाई देगा। मानव "किंकर्तव्य विमूढ़" हो जायेगा। अत: यह मान्यता मिथ्या ही है। स्याद्वाद से उभय की सिद्धि
उक्त विवेचन से यह सिद्ध होता है कि - निमित्तैकान्त, उपादानैकान्त और उभयैकान्त की मान्यतायें वस्तुसिद्धि में अकार्यकारी ही नहीं हैं अपितु दोषपूर्ण भी हैं जो उपादेय नहीं है । अब प्रश्न यह होता है कि वह कौनसा मार्ग है जो उपयोगी तथा वस्तुसिद्धि में समर्थ हो और जिसको विश्व के मानव स्वीकार कर अपना हित करने में समर्थ हो सकें। जैन सिद्धांत ग्रन्थों के अनुशीलन करने से यह ज्ञात होता है कि स्याद्वाद शैली से ही वस्तुसिद्धि में निमित्त तथा उपादान का सामञ्जस्य सिद्ध होता है। पदार्थ अनेक धर्मात्मक हैं, जिस प्रकार उनमें नित्यानित्य, एकानेक, सदसत् आदि धर्म हैं उसी प्रकार उनमें निमित्तोपादानत्व धर्म भी है। स्वधर्म की अपेक्षा उनमें उपादानत्व है और परद्रव्य की अपेक्षा उनमें निमित्तत्व है। पर कथन में जब उपादान की विवक्षा होती है तब निमित्तगौण रहता है और जब निमित्त की विवक्षा होती है तब उपादान गौण रहता है किन्तु गौण होने से वह लुप्त नहीं होता है। उसकी सत्ता रहती है ।पदार्थो का संयोग - वियोग सदा होता रहता है
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