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आगंम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इस प्रकार यह श्रावकाचार - श्रावकधर्म पर प्रकाश डालनेवाला एक उत्कृष्ट ग्रन्थ है उसकी भाषा विशद, प्रौढ़ और अर्थ की गंभीरता की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है । वास्तव में यह ग्रन्थ सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूपी रत्नों का करण्डक (पिटारा) है इससे पहिले कोई श्रावकाचार देखने सुनने में नहीं आता। अन्य प्रसिद्ध धार्मिक ग्रन्थ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, चारित्रसार, सोमदेव का उपासकाध्यन, अमितगति श्रावकाचार, सागार धर्मामृत और लाटी संहिता आदि श्रावकाचार विरुसक ग्रन्थ है, वे सब इसके पीछे के हैं। अत: जैन साहित्य का यह आद्य श्रावकाचार कहा जाता है अल्पकाय होने से बालक बालिकाओं तथा जिज्ञाषु पुरुष संहिताओं सहित सभी कण्ठस्थ करने योग्य है। यह ग्रन्थ केवल जैनविद्यालयों में ही नहीं अपितु अनेक हाईस्कूलों में भी पाठ्यक्रम के रूप में स्वीकृत है तथा हजारों विद्यार्थी प्रतिवर्ष उसका लाभ लेकर संस्कारवान बन रहे हैं। समन्तभद्र का समय :
जैन साहित्य और इतिहास वेत्ता श्री स्व. जुगलकिशोर जी मुख्तार ने अपने स्वामीसमंतभद्र नामक महा निबंधमें अनेक विद्वानों की बारी से समीक्षा करके यह अभिमत प्रकट किया है कि समंतभद्र. उमास्वामी के बाद और पूज्यपाद स्वामी के पहले विक्रम की द्वितीय या तृतीय शताब्दी में हुए है। श्रावकधर्म का विवेचन अपने अद्वितीय ग्रन्थ श्री रत्नकरण्डश्रावकाचार में करने के कारण स्वामी समंतभद्र जैनागम साहित्य गगन में अमरता पा चुके है। इनके विषय में अनेक आचार्यो सर्वश्री कुन्दकुन्द, स्वामीकार्तिकेय, आचार्य अमितगति, आचार्य अमृतचंद्र, आचार्य वसुनन्दी, पंडित प्रवर आशाधर, पंडित राजमल्ल कवि मेघानी, आदि ने आचार्य समंतभद्र के समय को विशेष रचना का मानकर उनके प्रति आगमसम्मत संस्तुति वर्णित की है। जीवन में घटित विशेष घटना :
___आचार्य समन्तभद्र ने जब मुनि पर्याय (निर्ग्रन्थ अवस्था) धारण की तब पूर्वोपार्जित दुष्कर्म ने इनकी परीक्षा लेना चाही किन्तु वे सफल रहे । पुष्ट प्रमाण के आधार पर ज्ञात है कि मुनि समन्तभद्र को तपस्याकाल में भष्मक व्याधि हो गई । जितना खावे सव भष्म होता जावे । भूख मिटती नहीं थी मुनिजीवन में दिन में एक बार प्राप्त रूखे - सूखे भोजन पर ही संतोष धारण करना पड़ता है ।अत: गुरु आज्ञा से आपने समाधिमरण पूर्वक देह त्याग का प्रस्ताव रखा | गुरु अवधिज्ञानी थे वे जानते थे कि इनके द्वारा भावी जैनधर्म की विशेष प्रभावना होना है। अत: गुरु ने आज्ञा नहीं दी। इसके बाद मुनी समंतभद्र ने मुनिमुद्रा छोड़कर अन्य (जैनेतर) साधु का वेश धारण कर लिया। मन में पश्चाताप था किन्तु विवशता थी। अब वे स्वेच्छापूर्वक विहार करते हुए एक बार काशी नगरी में पधारे तथा शिवमंदिर में शिवभोग की विशाल अन्न राशि को देखकर यह विचार कर मंदिर में रहने लगे कि इससे मेरी भूख शान्त होती रहेगी। यह कथन कर कि यह समस्त अन्नराशि मैं शिवजी की पिंडी को खिला दूंगा । चमत्कारी निर्णय था अत: मंदिर में रहने की अनुमति व्यवस्थापकों से प्राप्त कर ली। मंदिर के किवाड़ बंद कर उस विशाल अन्नराशि को भूख की निवृत्ति के लिए स्वयं खाने लगे। धीरे-धीरे उनकी व्याधि शांत होने लगी। काशी नरेश को जब यथार्थ
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