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कृतित्व / हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ गई हिंसा ने डॉक्टर महोदय को अहिंसा का फल दिया कारण कि डॉक्टर सा, का इरादा रोगी को मारने का न था । किसी गुरु के समीप नयचक्र द्वारा हिंसा अहिंसा के फलों को अवश्य समझना चाहिये ।
हिंसा अहिंसा के विषय में भ्रांतिपूर्ण विचारों का निराकरण -
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“परमेश्वर अर्हन्त द्वारा कहा गया धर्म बहुत गम्भीर है अतः धर्म के निमित्त हिंसा करने में कोई दोष नहीं" इस प्रकार भ्रमपूर्ण मान्यता द्वारा किसी भी प्राणी का वध नहीं करना चाहिए | कारण कि दयापूर्वक जीव हिंसा का त्याग करने से ही धर्म का विकास होता है, प्राणियों की हिंसा से कभी धर्म होता। धर्म के हेतु हिंसा करना भी पाप है।
निश्चय से धर्म देवताओं से उत्पन्न होता है अत: इस लोक में उनके लिये सब वस्तुऐं ही दे देना योग्य है अर्थात् प्राणियों का या प्राणों का बलिदान करना उचित है - इस प्रकार अविवेक पूर्ण विचार
किसी भी प्राणी अर्थात् पशु पक्षी बालक नर नारी आदि का बलिदान या समर्पण नहीं करना चाहिए। कारण कि प्राणियों के बलिदान, मांस, मदिरा, रक्त, या अंगदान से कोई भी देवता प्रसन्न नहीं होते है। और न कुछ खाते है । प्रत्युत महान् हिंसा से पाप ही उत्पन्न हो जाता है ।
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पूज्य पुरूषों के लिये या अतिथियों के लिए बकरा मुर्गा हिरण आदि प्राणियों का घात कर सम्मान करने में कोई दोष नहीं है - इस प्रकार की कुत्सित विचार धारा से किसी भी जीव का घात करना योग्य नहीं है । कारण कि वे पूज्य या अतिथि इस क्रिया से प्रसन्न नहीं होते, प्रत्युत हिंसा पाप ही उत्पन्न हो जाता है । जो धर्म का शत्रु है ।
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बहुत प्राणियों के घात से अथवा बड़े प्राणियों के घात उत्पन्न भोजन की अपेक्षा एक प्राणी अथवा छोटे प्राणी के घात से उत्पन्न हुआ भोजन निर्दोष है - ऐसे कुविचार से कभी भी एक जंगम जीव का अथवा एक छोटे प्राणी का घात नहीं करना चाहिए। कारण कि हिंसा प्राण घात करने से ही उत्पन्न होती है और एकेन्द्रिय जीव की अपेक्षा द्वीन्द्रिय आदि जीवों के घात में बहुत हिंसा है तथा एक छोटे जंतु की अपेक्षा बड़े प्राणी के मारने में बहुत हिंसा होती है । कोई भी हिंसा से धर्म नहीं होता । सर्प बिच्छू सिंह आदि दुष्ट हिंसक जीवों के घात करने से अनेक प्राणियों की रक्षा हो जायेगी । तथा सर्प आदि हिंसक जीवों को और उनके घातक प्राणियों को पुण्य का लाभ होगा- ऐसा कुविश्वास
र सिंह आदि दुष्ट जीवों का वध नहीं करना चाहिए । कारण कि दुष्ट प्राणियों के मारने से विश्व के समस्त दुष्ट प्राणियों का विनाश नहीं हो सकता, न उन प्राणियों की योनि का विनाश हो सकता है, न उन दुष्ट जीवों को पुण्य का लाभ होगा और न उनके घातक पुरूषों को पुण्य का लाभ होगा, प्रत्युत उन प्राणियों को मारने वाला मानव स्वयं दुष्ट प्राणी बन जायेगा, तो उस दुष्ट प्राणी को भी मारना चाहिए और उसको मारने वाला दूसरा भी दुष्ट हो जायेगा, इस प्रकार घातक का अंत न होने से अनवस्था दोष हो जाता है।
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