SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कृतित्व / हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आवश्यकता है । शब्दों के माध्यम से वस्तु का एकधर्म कहकर लोक व्यवहार चलाया जाता है अतः नय की आवश्यकता होती है । जैनदर्शन तीर्थ का प्रवर्तन लोक में स्याद्वाद पद्धति के ज्ञाता आचार्यो द्वारा ही होता है इस कथन को आचार्य अमृतचंद जी ने पुष्ट किया है. मुख्योपचारविवरण- निरस्तदुस्तरविनेयदुर्योधाः । व्यवहार निश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् ॥ (पुरूषार्थसिद्धयुपाय श्लोक - 4) मुख्य तथा उपचाररूप नय की व्याख्या से शिष्यों एवं श्रोताओं के गहन अज्ञानान्धकार को दूर करने वाले तथा व्यवहार निश्चय के ज्ञाता आचार्य इस विश्व में धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं । तीर्थंकरों के प्रमुख गणधरों द्वारा भी द्वादशांग शास्त्रों की रचना स्याद्वाद (नयचक्र) के आधार पर होती है कवि द्यानतराय ने कहा है कि सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर, गूंथे बारह सुअंग । रवि शशि न हरे सो तम हराय, सो शास्त्र नमों बहुप्रीति लाय ॥ (देव शास्त्र गुरु पूजन, जयमाल ) श्री अमृतचंद्र आचार्य के पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ग्रन्थ में नयों की आवश्यकता पर एक गाथा का उद्धहरण दिया गया है। हिन्दी टीकाकार ने श्लोक नं. 8 की टीका में कहा है जड़ जिणमयं पवज्जइ, ता मा ववहारणिच्छए मुअह । एकेण विणा छिज्जई, तित्थं अण्णेण पुण तच्चं ॥ सारांश - विश्व में यदि जिनमत को प्रसारित करना चाहते हो तो निश्चय तथा व्यवहार नयों में से एक भी नय को मत छोड़ो, कारण कि एक व्यवहार के बिना धर्मतीर्थ का लोप हो जायेगा और दूसरे निश्चय न मानने पर वस्तुतत्त्व एवं आत्मतत्त्व का लोप हो जायेगा । अत: नयज्ञान आवश्यक है। स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद परमागम या जैनदर्शन का मूल कारण है उसके बिना जैन सिद्धांत की रचना नहीं हो सकती और स्याद्वादनय को जाने बिना जैन सिद्धांत का रहस्य नहीं जाना जा सकता । अतः नयवाद और उसके प्रयोग का ज्ञान करना नितांत आवश्यक है । नय की सामान्य परिभाषा - अनेक धर्म विशिष्ट पदार्थ के, विवक्षित दृष्टिकोण से किसी एक धर्म को ग्रहण करना या जानना न कहा जाता है, अथवा व्यक्ति अपने अभिप्राय से जो एक अंश, वस्तु का कथन करता है या उपयोग करता है उसे नय कहते हैं । श्री अकलंकदेव द्वारा कथित नय की व्याख्या " प्रमाणप्रकाशितार्थ विशेष प्ररूपको नयः " I Jain Education International 254 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy