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________________ दिवंगत विद्वानों के जीवन परिचय साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ (3) फिर भोजन के पश्चात् दुकान जाते थे। व्यापार भी सरल सत्य व्यवहार से करते थे व्यापार संबंधी कभी भी अदालती कार्यवाही, उन्होंने नहीं की। (4) शाम को काफी सूर्य का उजाला रहने पर दुकान बंद कर, घर आते थे। तथा सायं काल में अल्पाहार लेते थे। (5) रात्रि भोजन तो दूर पानी भी नहीं पीते थे। (6) शाम को सामायिक करते थे - रात्रि को मंदिर में प्रवचन करने थे, पुन: घर में शास्त्रों का अध्ययन कर, शयन करने जाते थे। (7) घर में रहते हुये भी सातवीं प्रतिमा का पालन दृढ़ता पूर्वक करते थे। पंडित जी का उपरोक्तानुसार कार्यक्रम उनकी 30 वर्ष की आयु से शुरू हुआ और अंतिम समय तक आध्यात्मिक प्रगति के साथ दसवी प्रतिमा तक का पालन किया। विपरीत परिस्थिति आने पर भी अपने नियम पालन में शिथिलता नहीं आने दी । यही कारण है कि उनकी ऐंसी रूचि, समाधि के समय में सहायक हुई। सन् 1968 के पश्चात् उन्होंने अपने व्यवसाय सराफी दुकान से नाता तोड़ दिया । अधिकांश समय अपनी आध्यात्मिक उन्नति में संलग्न रहे । मुनियों, व्रतीजनों विद्वानों पंडितों, ज्ञानीजनों से सम्पर्क बनाते रहे। वे आहारचार्य, वैयावृति, दान प्रवचनों आदि में अधिकांश समय व्यतीत करते रहे। सभी सिद्ध क्षेत्रों अतिशय क्षेत्रों की भाव सहित वंदना करने में अपने समय का सदुपयोग किया । इस प्रकार के संयोग बड़े पुण्य से ही मिलते है। पंडित जी ने इनका भरपूर लाभ लिया। इन सब कारणों से पंडित जी समाधि हेतु सल्लेखना व्रत लेने के लिए अग्रसर हुये । उनकी हार्दिक इच्छा थी कि समाधि आचार्यश्री के सानिध्य में होवें और उनको इसमें पूर्ण सफलता भी मिली। उन्होंने सावन सुदी 1 संवत् 2043 को पपौराजी जाने का निश्चय किया। वहाँ पर आचार्यश्री विद्यासागर महाराज का चौमासा हो रहा था । पपौरा जी के प्रस्थान के समय चौघरनबाई जैन मंदिर के दर्शन किये। समाज के अधिकांश व्यक्ति भी, बिना किसी सूचना पर भी, एकत्रित हो गए सभी परिवार के सदस्य, रिश्तेदार आदि भी आ गए। पंडित जी ने सभी से विनयपूर्वक हाथ जोड़कर क्षमा माँगी और हमेशा के लिए गृह त्याग करने के लिए विदाई माँगी। इस प्रकार सावन सुदी 1 के दिन रात्रि को पपौरा जी में आचार्यश्री के सानिध्य में पहुँचकर शांति का लाभ लिया और चैन की सांस ली। श्रावण सुदी 5 के बाद पंडित जी ने दो दिन तक केवल दूध पानी का आहार लिया । अष्टमी को उपवास रखा । इसके पश्चात् चौदस तक (अंतिम समय) कुछ भी आहार में ग्रहण नहीं किया इस अवधि में आचार्यश्री ने पंडित जी को दसवीं प्रतिभा के व्रत ग्रहण कराये। आचार्यश्री अपने संघस्थ मुनियों के साथ पंडित जी को संबोधन करने आते थे। तथा परमार्थिक चर्चा भी करते थे पंडित जी की बोलने की शक्ति क्षीण हो गई थी अत: वे आचार्यश्री को उत्तर इशारा से एवं सिर हिलाकर देते थे। ऐसी अवस्था में उन्होंने अपना संतुलन नहीं खोया और चैतन्य अवस्था में अंत तक रहे। उनकी वैयावृति में अंतिम समय तक पूज्य मुनिश्री समाधि सागर ब्रह्मचारी गण (वर्तमान से ऐलक निश्चय 655) - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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