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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ भक्ति है और उसके कार्य चार है - 1. ग्रहों की शांति, 2. दुर्गति से सुरक्षा, 3.तीर्थंकर चक्रवर्ती आदि उच्च पद प्राप्ति, 4. भक्तिपद की सम्प्राप्ति । विशेष यह की जिनेन्द्र भक्ति इतना प्रबल एक कारण है कि उससे अनेक महत्वपूर्ण कार्य सिद्ध होते है। द्वितीय चमत्कार यह प्राप्त होता है कि जिन भक्ति रूप श्रेष्ठ कारण किसी स्थान पर विद्यमान है और कार्य किन्हीं अन्य स्थानों पर होते हैं यह चमत्कार साहित्य के असंगति अलंकार से अलंकृत होता है। इस विशिष्ट अर्थ से भक्ति रस और शांतरस का समंवय सिद्ध होता है। काव्य की अन्य सामग्री का भी इसमें समावेश हो जाता है। पूजा नं. 48 मंदरमेरूपूजा, जयमाला, पद्य नं. 7 पृ. 433 का उद्धरण - गुणगण मणिमाला, परमरसाला, जो भविजन निजकण्ठ धरें। वे भवदावानल शीघ्र शमनकर, मुक्तिरमा को स्वयं वरें। घत्ताछंद में निबद्ध इस पद्य में रूपकालंकार, परिकरालंकार की संसृष्टि से अन्य सामग्री के सहयोगपूर्वक शांतरस की वर्षा हो रही है। अनुप्रास नाम अलंकार भी शब्दों में अपना चमत्कार प्रदर्शित कर रहा है। तीन लोक विधान का समीक्षात्मक परिशीलन इस विधान का प्रथम नाम 'तीन लोक विधान' प्रसिद्ध है इसका द्वितीय अभिधान 'मध्यम तीन लोक विधान' निश्चित किया गया। यह विषय तो पौराणिक, सैद्धांतिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि से प्रसिद्ध है कि यह लोक अत्यंत विशाल है। परिमाण से 343 राजू घनाकार है। इतने विशाल लोक का श्रुतज्ञान से अवलोकन कर उसके चैत्य एवं चैत्यालयों का वर्णन, पूजन, भजन, वृहत्-मध्यम-लघु रूप में कर देना अर्थात् तीन विधानों का सृजन करना यह विधात्री माताजी के ज्ञान की विलक्षण प्रतिभा समझना महान् आश्चर्य का विषय है, यह तो दीपक के द्वारा सूर्य की पूजा करना है। वी.नि.सं. 2513 में इसकी रचना पूर्ण होकर 2514 में यह प्रकाशित हो गया। इस विधान में कुल 64 पूजाएँ, 884 अर्ध्य एवं 140 पूर्णायं लोकत्रय के चैत्य-चैत्यालयों का अर्चन करते हैं, 65 जयमालाएँ परमात्मा के श्रेष्ठगुणों का चिंतन करने में संलग्न है ।इस विधान का द्रव्य शरीर 35 प्रकार के छंदों में निबद्ध 2448 पद्य प्रमाण हैं, जो पद्य संगीत की रम्य स्वरलहरी लहराते हए जनता द्वारा ज्ञेय एवं ध्येय है, नियमत: पद्य भक्त भव्यों के स्वांत सरोज को प्रफुल्लित करते है। इस विधान के कतिपय रम्प पद्यों का उद्धरण - मंगलाचरण का आठवाँ पद्य : मैं यही परोक्ष भावपूर्वक कर जोड़ शीश नावू वन्दूं, जिनमंदिर जिनप्रतिमाओं को मैं वन्दू कोटि कोटि वन्दूं । जिनवर की भक्तिगंगा में अवगाहन कर मल धो डालूँ ॥ निज आत्मसुधारस को पीकर चिन्मय चिन्तामणि को पालूँ ॥ -345 4345 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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