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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 2. अनुमान, 3.उपमान, 4. शाब्द, 5. अर्थापत्ति, 6. अभाव । इसको पूर्व मीमांसा दर्शन भी कहते हैं - वेदवाक्यं प्रमाणम्। 8. वेदान्त दर्शन :- यह दर्शन भी भाट्टदर्शन की तरह छह प्रमाण भेदों को स्वीकार करता है । उत्तरमीमांसादर्शन (व्यासप्रणीत -ब्रह्माद्वैतवाद) 9. कोई दर्शनकार :- प्रमाण के सात भेदों को मानते हैं - 1. प्रत्यक्ष, 2. अनुमान, 3.उपमान, 4. शाब्द, 5. अर्थापत्ति, 6. सम्भव, 7. अभाव। 10. पौराणिक - पौराणिक आचार्य पुराण को प्रमाण मानते हुए प्रमाण के आठ भेदों को स्वीकार करते हैं। 1. प्रत्यक्ष, 2. अनुमान, 3.उपमान, 4. शाब्द, 5. अर्थापत्ति । 6. अभाव , 7.सम्भव, 8. ऐहिह्य (इतिहास) 11. जैन दर्शन :- इस दर्शन में पदार्थो के सम्यक्ज्ञान को प्रमाण का निर्दोष लक्षण माना गया है और प्रमाण के दो प्रकार कहे गये हैं - 1.प्रत्यक्ष (इन्द्रिय तथा मन की अपेक्षा के बिना शुद्ध आत्मा से होने वाला ज्ञान), 2. परोक्ष (इन्द्रिय तथा मन की अपेक्षा से आत्मा में होने वाला ज्ञान)। यद्यपि जैन दर्शन में आचार्यों ने प्रमाण का लक्षण और भेद अवश्य कहे हैं परन्तु पदार्थो का ज्ञान केवल प्रमाण से ही नहीं कहा है, अपितु पदार्थतत्वज्ञान के लिए द्वितीय प्रकार “नय"का भी एक विचित्र आविष्कार किया है जो अन्य दर्शनों से विशिष्ट एवं अपूर्व है । नयज्ञान के अनुसंधान की भूमिका निम्नलिखित पद्धति से है - अंतिम तीर्थंकर भ. महावीर स्वामी की आचार्य परम्परा के अंतर्गत, विक्रम की द्वितीय शताब्दी के मध्य में हुए आचार्य उमास्वामी का प्रभाव भारत में अधिक व्यापक हो रहा था। सैद्धांतिक तत्वों का प्रवचन करने के कारण आप को “वाचक" पद से विभूषित किया गया। उस समय गुजरात प्रदेश के शिविर में आप के महत्वपूर्ण दार्शनिक प्रवचन प्रचलित हो रहे थे। सौराष्ट्र के एक संस्कृतज्ञ द्वैपायक (सिद्धय्य) नामक जैन विद्वान ने एक दिन तत्वज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से शिविर में जाकर पूज्य श्री उमास्वामी आचार्य के प्रति प्रश्न किया कि हे गुरुवर्य ? तत्वज्ञान प्राप्त करने का सरल संक्षिप्त तथा युक्तिपूर्ण उपाय क्या है ? श्री आचार्य प्रवर ने सरल एवं संक्षिप्त शैली में संस्कृत भाषा के माध्यम से उत्तर दिया - "प्रमाणनयैरधिगमः" (तत्त्वार्थसूत्र अ.।, सूत्र-6) अर्थात् जीवादिसात तत्त्वों, छह द्रव्यों, नवपदार्थो और रत्नत्रय का ज्ञान यथार्थ रीति से प्रमाण एवं नय की पद्धति द्वारा प्राप्त होता है। ___ द्रव्यों तथा उनके सम्पूर्ण गुण एवं पर्यायों को, तथा तत्त्वों पदार्थो और सम्यक् रत्नत्रय को नि:संदेह स्पष्ट (विशद) जानने वाले यथार्थ ज्ञान को प्रमाण कहते हैं, इसमें इन्द्रियों, मन आदि की अपेक्षा नहीं होती है, ज्ञानस्वरूप आत्मा ही द्रव्यों को विशद (स्पष्ट) जानता है। श्री माणिक्यनंदी आचार्य ने प्रमाण का स्वरूप कहा है - 'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं' अर्थात् अपने को तथा अनिश्चित या अज्ञात पदार्थ को निर्णय या निश्चय करने वाले संदेह रहित ज्ञान को प्रमाण कहते हैं । अथवा 'सम्यग्ज्ञान प्रमाणम्' अर्थात् पदार्थो के समीचीन ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। श्री समंतभद्र आचार्य द्वारा सम्यग्ज्ञान की व्याख्या की गई है। -251) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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