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कृतित्व/हिन्दी
अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज् ज्ञानमागमिनः ।।
(रत्नकारण्ड ज्ञावकाचार श्लोक - 42 ) जो ज्ञान पदार्थ (द्रव्य) के स्वरूप को न्यूनतारहित, अधिकतारहित, विपरीततारहित, यथार्थ, संदेहरहित जानता है उसको आगम के ज्ञाता आचार्य सम्यग्ज्ञान या प्रमाण ज्ञान कहते हैं।
प्रमाणज्ञान (सम्यग्ज्ञान) दो भागों में मुख्यतः विभक्त है 1. प्रत्यक्ष, 2. परोक्ष | प्रत्यक्ष ज्ञान में वह विशेषता है कि वह ज्ञान इन्द्रिय, मन, पदार्थ, प्रकाश, उपनेत्र, (चश्मा), कर्णयंत्र, पुस्तक शिक्षक, अक्षर, लेखनकला, मुद्रणकला, टंकणकला (टाईपिंग), टेलीफोन टेलीग्राम, चित्र आदि बाह्यनिमित्तों के बिना ही ज्ञान स्वरूप आत्मा से ही उत्पन्न होता है। इसके दो प्रकार हैं 1. एक देश प्रत्यक्ष ज्ञान, 2. सर्वदेश प्रत्यक्ष ज्ञान। एक देश प्रत्यक्ष ज्ञान की दो धाराएं हैं - 1. अवधिज्ञान, 2. मन:पर्ययज्ञान | अवधि ज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम होने पर, द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा से जो ज्ञान, इन्द्रिय मन प्रकाश आदि की सहायता के बिना, मात्र ज्ञानस्वरूप आत्मा से पदार्थ को स्पष्ट जानता है वह अवधिज्ञान कहा जाता है ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
मनः पर्ययज्ञानावरण कर्म का क्षयोपगम होने पर, द्रव्यक्षेत्र काल भाव की अपेक्षा या सीमा लिए हुए जो ज्ञान, इन्द्रिय, मन प्रकाश आदि बाह्यनिमित्त के बिना, किसी संज्ञी प्राणी के मन में विचारित पदार्थ को आत्ममात्र से स्पष्ट (विशद) जानता है वह मन: पर्ययज्ञान कहा जाता है।
सर्वदेश प्रत्यक्षज्ञान, केवल ज्ञान नाम से कहा जाता है जो ज्ञान केवल ज्ञानावरणकर्म का क्षय होने पर, किसी अन्य पदार्थ की सहायता के बिना, ज्ञानस्वभावी आत्मा में ही व्यक्त होकर, लोक अलोक, समस्त द्रव्यगुण और पर्यायों को एक साथ स्पष्ट (निर्मल), दर्पण की तरह जानता है एवं सूर्य के समान प्रकाशमान होता है वह केवल ज्ञान सार्थक नाम है ।
प्रमाण का दूसरा मुख्य विभाग परोक्ष प्रमाण है जो ज्ञान इन्द्रियों, मन आदि साधनों से आत्मा में व्यक्त होता है वह परोक्षज्ञान प्रसिद्ध है, इसको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहते है । इसके प्रमुख दो विभाग है 1.मतिज्ञान 2. श्रुतज्ञान । मतिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशमरूप अंतरंगनिमित्त के प्राप्त होने पर, बहिरंगनिमित्त यथायोग्य पाँच इन्द्रियां, मन, आदि के माध्यम से पदार्थ (वस्तु) का जो प्रथम ज्ञान होता है वह मतिज्ञान के नाम से प्रसिद्ध है जैसे यह पुस्तक है यह मनुष्य है इत्यादि ।
श्रुतज्ञानावरणकर्म की क्षयोपशमदशा होने पर, मतिज्ञान के द्वारा जाने गये पदार्थ के विषय में विशेष ज्ञान का व्यक्त होना प्रथमश्रुतज्ञान कहा जाता है, इसके बाद वस्तु का विशेष ज्ञान होना द्वितीय श्रुतज्ञान कहा जाता है इस उत्तरोत्तरकाल में श्रुतज्ञान की परम्परा चलती जाती है इस सब श्रुतज्ञान की परम्परा या वृद्धि को श्रुतज्ञान नाम से ही कहा जाता है, यह श्रुतज्ञान मन के चिंतन तथा गुरु के शिक्षण, पुस्तक के अध्ययन मन आदि बाह्यनिमित्तों के माध्यम से होता है जैसे यह पुस्तक कौन विषय की है, क्या मूल्य है किस विषय का वर्णन है उसका अध्ययन मनन इत्यादि ।
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