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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तीर्थंकर महावीर और उनका जीवन दर्शन
परिवर्तनशील कालचक्र के अनुसार विश्व का उत्थान एवं पतन सर्वदा होता रहता है ।अपने महान् आत्मबल से पतित विश्व को उत्थान की ओर ले जाने वाले जगत्पूज्य महात्मा भी इस वसुन्धरा पर समय - समय पर अवतार लेते आये हैं। भोग युग के अंत में प्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ इस भारत में अवतरित हुए थे और कर्म युग के आदि में उन्होंने असि मषि, कृषि, कला व्यापार और शिल्प इन छह लौकिक कर्मो के उपदेश से तथा देवार्चा, गुरु भक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और त्याग (दान) इन छह धार्मिक कर्मो के उपदेश से तत्कालीन भोली जनता को जीवन निर्वाह और आत्म कल्याण का मार्ग दर्शाया। यह विषय प्राचीन शिलालेख, तीर्थक्षेत्र, इतिहास एवं पुराणों से सिद्ध हो चुका है।
प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव के पश्चात् क्रमश: श्री अजितनाथ आदि 23 तीर्थकरों ने भी इस भारत भूमि में अवतार (जन्म) लेकर अपने दिव्य उपदेश से अखिल जगत को कल्याण का पथ प्रदर्शित किया था। तेवीसवें तीर्थकर श्री भ. पार्श्वनाथ के मुक्तिपद को प्राप्त करने के अनन्तर प्राय: सौ वर्ष व्यतीत हो जाने पर यह विश्व पतन की ओर जाने लगा था। उस समय की जनता विवेक को स्वार्थ लालसा की भट्टी में झोंककर हिंसा को अहिंसा, असत्य को सत्य, दुराचार को सदाचार और पापकर्म को पुण्यकर्म समझने लगी थी। सत्य
और सदाचार का गला घोंटकर जीवन में छल और दुराचार को जीवित करने लगी थी। उस समय का मानव मानवता को भेंट कर दानवता का पुजारी बन गया था । वह समय था कि जब प्राणियों के जीवन पर मरण ने, सुख पर दुख ने, द्रव्य पर दरिद्रता ने, न्याय पर अन्याय ने बलात् अपना अधिकार जमा लिया था। उस समय के प्रभाव से व्यक्ति जल का प्यासा न होकर खून तथा मदिरा का प्यासा, शाकाहारी न होकर मांसाहारी, और समाज का रक्षक न बनकर भक्षक बन गया था।
उस समय के प्रभाव से स्वार्थ सिद्धी के कारण किये जाने वाले यज्ञों मे हव्य सामग्री के स्थान पर मूक प्राणी और देवी की पूजा में द्रव्य के स्थान पर देह का बलिदान होने लगा था। साम्प्रदायिकता का नाच घर घर में हो रहा था । नारी का शील बाजारों में बिकने लगा था। ऊँच नीच के विषैले भेदभाव ने मजदूर एवं सेवक वर्ग का जीवन पैरों के नीचे कुचल दिया था। मिथ्यामार्ग के झण्डे यत्र तत्र लहरा रहे थे। इस प्रकार उस समय की जनता ने प्राय: अपने ही आनंद के लिए स्वर्ग के द्वार को खोलने की इच्छा होते हुए भी अपने हाथों से नरक का द्वार खोल लिया था।
उस समय लोक की इस भीषण दशा को छिन्न भिन्न करने के लिए वे धीर वीर वर्द्धमान, भारत के विहार प्रान्तीय कुण्डलपुर में आज से 2572 वर्ष पूर्व, ईशा से लगभग 600 वर्ष पूर्व, भ. पार्श्वनाथ के मुक्ति गमन के 178 वर्ष बाद, विक्रम सं. 542 वर्ष पूर्व, मोहम्मद पेगम्बर से 1180 वर्ष पूर्व, गर्भ से 9 माह 8 दिन पश्चात् चन्द्र के उतराफाल्गुनिनक्षत्र काल में उदित होने पर, चैत्र शुक्ला त्रयोदशी सोमवार को रात्रि के अपरभागान्त में जन्म लेकर ज्ञातृवंश के काश्यपगोत्र के तिलक रूप में प्रसिद्ध हुए। इसका प्रमाण भी देखिये
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