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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ - इसके अतिरिक्त भारतीय साहित्य में भ. महावीर के दूसरे विविधनामों का भी उल्लेख पाया जाता है जिनसे उनकी ऐतिहासिकता एवं व्यापकता सिद्ध होती है । वे अभिधान इस प्रकार हैं - केशव,श्रमण, विदेह, विदेहदिन्न, णायपुत्त,ज्ञातपुत्र, वैसालिय, वैशालिक, मुनिब्राह्मण, माहण, महतिवीर, देवार्य, अन्त्यकाश्यप, महति, नाथान्वय, चरमतीर्थंकर सिद्धार्थपुत्र, त्रिशलानंदन, -
सन्मतिर्महति ीरो महावीरऽन्त्यकाश्यप: ।
___ नाथान्वयो वर्द्धमानो यतीर्थमिह साम्प्रतम्॥ द्वितीयाचंद्र के समान प्रतिभा सम्पन्न बाल्यावस्था से उन्नति करते हुए कुमार वर्द्धमान सर्वांगसौन्दर्यशोभित यौवनदशा को प्राप्त हुए । उनका शारीरिक एवं बौद्धिक विकास वृद्धिंगत हो रहा था। समय तथा दशा के अनुकूल पिता सिद्धार्थ ने नवयुवक वर्द्धमान के पाणिग्रहण संस्कार की वार्ता करना प्रारंभ कर दिया। उस बुद्धिमान नवयुवक के कर्णों में विवाह शब्द की ध्वनि आते ही पिता जी से विनम्र निवेदन किया हमारे पूर्व तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ ने विवाह के बंधन को इसलिये स्वीकार नहीं किया कि उनकी आयु केवल सौ वर्ष थी उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकर श्री नेमिनाथ ने श्री अखण्ड ब्रह्मचर्य लेकर इन्द्रियों के विषयों से अपने मन को विमुक्त बना स्वपर कल्याण किया। मरी आयु केवल 72 वर्ष है । इस अल्प जीवन में विषयों की दासता परित्याग कर में पूर्ण ब्रह्मचर्य की साधना करना चाहता हूँ। मुझे राज्यवैभव विषतुल्य लगता है। अब मैं कर्मशत्रुओं को नाश कर सच्चेसुख और शान्ति को प्राप्त करना चाहता हूँ। इसलिए आप के द्वारा प्रदर्शित राग के पथ पर प्रवृत्ति करने में मैं असमर्थ हूँ। इतना कहकर उस नवयुवक वर्द्धमान ने अखण्ड ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर लिया। (भ.महावीर पृ. 15)
___ उन नवयुवक की पवित्र आत्मा में भोगने नहीं योग ने, सरागता ने नहीं विरागता ने, संयोग ने नहीं, वियोग ने, मोह ने नहीं उदासीनता ने, दोषों ने नहीं, गुणों ने, निर्दयता ने नहीं, सहृदयता ने, विषमता ने नहीं समता ने , अज्ञान ने नहीं विज्ञान ने, भ्रष्टाचार ने नहीं सदाचार ने , स्वार्थ ने नहीं सेवा ने,कायरता ने, नहीं वीरता ने , अपना स्थान जमा लिया था। इसलिए उन्होंने तीस वर्ष की अरूण तरूण दशा में आग्रहायन कृष्ण 10 वीं तिथि को, ईसा से 569 वर्ष पूर्व सन्ध्या के समय चंद्रप्रभा पालकी में बैठकर नगर से तपौवन में जाकर उत्तरानक्षत्र में सर्व विषय कषाय तथा पापों का त्याग करते हुए णमोसिद्धाणं' कहकर दिगम्बर(वस्त्ररहितदशा) दीक्षा को धारण कर लिया और सघन वन के एकान्त प्रदेश में कठोर तपस्या करने लगे। इसी विषय का समर्थन देखिये
भुक्त्वा कुमारकाले त्रिशद्वर्षाण्यनन्तगुणराशिः । अमरोपनीतभोगान सहसाभिनिवोघितोऽन्येधु : ॥ नानाविधिरूपचितां विचित्रकूटोच्छ्रितां मणि विभूषाम्। चंद्रप्रभारव्यशिविकामारूह्य पुराद् विनिष्क्रान्त : ॥
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