________________
• आगम संबंधी लेख
एक सुख शांति का रास्ता
इंजी. सुखदेव जैन हानगर, मकरोनिया, सागर
जीवन में कुछ बनने से पहिले शंकर बनना जरूरी है। शंकर ने जहर पिया देवत्व की रक्षा के लिए, असुर प्रवृत्तियों के नाश के लिए। इस प्रकार शंकर जहर पीकर शिव बन गये। हम भी अगर जहर पीयें तो हमारे अंदर असुर प्रवृत्तियां हैं उनको बाहर निकाल सकते हैं। जैसा कि आप को मालूम है अत्याधिक मीठा खाने के बाद मन खट्टा खाने को करता है। मधुमेह में करेला ही काम करता है। जहर है क्या ? जहर है वैमनस्यता, असहिष्णुता, अवात्सल्य, क्रोध, ईर्ष्या, चुगली, गाली-गलौच, मनमुटाव, कटुता और अहं । इस जहर को हम सबको पीना है। जिस दिन से ये पीना शुरू किया कि आपमें एक नई ऊर्जा, नया विश्वास, नया जागरण हो जावेगा, उसी दिन से घर में शांति ।
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
हमारे अंदर ये सब भरा हुआ है और जहर को मारने के लिए जहर ही जरूरी है। हमारे आचारविचार में अहं, कटुता, असहिष्णुता आदि भरे हुए हैं। पति-पत्नि में मनमुटाव, कटुता, गाली-गलौच से जीवन नरक बना हुआ है। एक पक्ष अगर क्रोधित होता है और दूसरा पक्ष शांत रहता है तो महाभारत नहीं होगा और उस घर में शांति रहेगी। घर के सब सदस्यों को कोई न कोई प्रकार का जहर तो पीना ही पड़ेगा और उसी दिन से आपके जीवन का रूपांतर शुरू हो जायेगा। धर्म घर से शुरू होना चाहिये फिर मंदिर से घर की शांति से ही स्वर्ग बनेगा। अतः नरक से बचें। जितने भी कड़वे घूंट हैं वो चाहे पत्नि, पति, माँ-बाप, आस-पड़ोस के सब को पीना होगा। शंकर बनोगे तभी तो शिव बनोगे । बिना जहर पिये शिव नहीं बन सकते। जितने भी महापुरूष हुए हैं सबने किसी न किसी प्रकार का जहर पिया। कितने उपसर्ग सहे, कितनी शारीरिक वेदनायें सहीं । क्राइस्ट को सूली पर लटकाया गया, महावीर का भी बहुत अपमान हुआ, राम को जंगल के दुख सहने पड़े, सीता को अग्नि परीक्षा देनी पड़ी, सती अंजना को घर से निकाला। कहां तक कहा जायें, मतलब यह है बिना कड़वे घूंट जहर के पिये बिना जीवन में निखार नहीं आयेगा ।
श्रीकृष्ण के बारे में निम्न वाक्यों से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि महापुरूषों को क्या नहीं करना पड़ता और कितना जहर पीना पड़ता है। युधिष्ठिर के राजसूर्य यज्ञ में कृष्णा ने जूठी पत्तलों को बटोरने का कार्य लेकर ब्राह्मणवाद, क्षत्रियवाद, कुलीनता के विष को पीया । दुर्योधन की दुष्टता एवं पांचाली के अपमान का हलाहल भी उनसे अछूता नहीं रहा । द्वारका में अपने ही परिजनों को आपस में कटते-मरते देखकर उन्हें एकाकीपन का भी गरलपान करना पड़ा। ऐहिक लीला समाप्त हो गई। इस प्रकार, उनका पूरा जीवन ही समाज - विषपान करने में बीत गया। वे जब तक जिये, सबके लिये जिये, सबके होकर जिये और सबका जहर पीकर भी जीवन की दिशा सुझाते रहे ।
Jain Education International
मुसीबतें ही जीवन के निखार की कसौटी है। पति पत्नि में सामंजस्य का होना बहुत आवश्यक है, क्योंकि वे गृहस्थी की गाड़ी के दो पहिये हैं। जो बिना एक पहिये के गाड़ी नहीं चल सकती । एक ही
591
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org