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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ 5. केवलज्ञान - समस्त पदार्थों की त्रिकालवर्ती पर्यायों को युगपत जानने वाला केवलज्ञान है। इसमें लोक- अलोक समस्त रूप में प्रतिविम्बित होते है । वस्तुत: आत्मा ज्ञान - स्वभाव है, अत: आत्मा के समस्त आवरणों के समाप्त हो जाने पर अपने स्वभाव रूप हो जाता है और समस्त पदार्थों की त्रिकालवर्ती पर्यायों को एक साथ जानने लगता है। "केवल" शब्द असहाय वाची है। इसीलिए जो इन्द्रिय और आलोक आदि किसी की अपेक्षा नहीं रखता, वह “केवलज्ञान" है । इसके होने पर आत्मा परमात्मा रूप बनकर सर्वज्ञ हो जाता है। यह तो वह दिव्य ज्ञान है, जिसमें नष्ट और अनुत्पन्न पर्यायें भी प्रतिविम्बित होती है। क्योंकि यह केवल ज्ञान ऐसे ही उत्पन्न नहीं होता अपितु तत्त्वार्थसूत्र (10/1) के अनुसार “मोहक्षयाज्ज्ञान दर्शनावरणान्तराय क्षयाच्च केवलम्" अर्थात् मोहनीय कर्म का क्षय होने से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय, कर्म का क्षय होने पर केवल ज्ञान प्रगट होता है।
वस्तुत: इन चार प्रतिबंधक कर्मों में से पहले मोह का क्षय होता है और फिर अंतर्मुहर्त में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय इन तीन कर्मो का भी क्षय हो जाता है । क्योंकि मोह सबसे अधिक वलवान है अत: उसके क्षय के बाद ही अन्य कर्मो का क्षय संभव है। इन सब के क्षय होते ही केवल ज्ञान प्रगट हो जाता है। और वह जीव केवली अर्थात् सर्वज्ञ बन जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचन सार में कहा -
अत्थं अक्खणिवदिदं ईहापुव्वेहिं जो विजाणंति ।
तेसिं परोक्खभूदं णादुमसक्कं ति पण्णत्तं ॥4॥ अर्थात् इन्द्रिय ज्ञान बहुत सीमित होता है क्योंकि जो इन्द्रिय गोचर पदार्थ को अवग्रह, ईहा आदि के द्वारा जानते हैं, उनके लिए परोक्षभूत अर्थात् जिसका अस्तित्व बीत गया अथवा जिसका अस्तित्व काल अभी उपस्थित नहीं हुआ ऐसे अतीत, अनागत पदार्थ को जानना संभव नहीं हो सकता। और जब अनुत्पन्न तथा नष्ट पर्याय जिस ज्ञान में प्रत्यक्ष न हो उस ज्ञान को दिव्य भी नहीं कहा जा सकता । इसके विपरीत केवलज्ञान में यह दिव्यता है कि वह अनंत द्रव्यों की (अतीत और अनागत) समस्त पर्यायों को सम्पूर्णतया एक ही समय में प्रत्यक्ष जानता है । पं. दौलतराम जी ने छहढाला की निम्नलिखित दो पंक्तियों में इसी बात को इस रूप में कहा है -
सकल द्रव्य के गुण अनंत पर्याय अनंता ।
जाने एकै काल प्रगट केवली भगवंता ॥ प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं -
णवि परिणमदि ण गेण्हदि उप्पज्जदि णेव तेसु अढेसु । जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तों ।।52॥ गेण्हदि णेव ण मुंचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं । पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं णिरवसेसं ॥32॥
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