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व्यक्तित्व
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ चांदनी, नदी और तरलता अन्योन्याश्रित होते है, वैसे ही ज्ञान शिक्षण देना एवं ज्ञान प्राप्त करना जीवन का अनन्य लक्ष्य बन गया था ।
वर्णी जी के आदेशानुसार गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय के लिए अपना जीवन समर्पित करने का लक्ष्य बनाया था । विद्यालय के लिए अपने आप को ऐसा समर्पित किया कि विपरीत परिस्थितियों की एक भी आँधी उस समर्पण को न मिटा सकी । कितनी भी विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, लेकिन काल की कराल छाया भी उस समर्पण को मलिन व धुंधला भी न बना सकी, ऐसा पिताजी का वर्णी
प्रति विद्यालय के प्रति समर्पण था । वह समर्पण जीवन के अंत तक भी सेवा भाव के रूप में प्रकट होता था । शारीरिक क्षमता न होते हुये भी समर्पण का भाव ही उन्हें सेवा से मुक्त नहीं करा पाता था । ऐसे मेरे पिताजी का अद्वितीय व्यक्तित्व ही जीवन में दीपक की तरह जगमगाता था ।
कर्त्तव्य निष्ठ - प्रत्येक कार्य के लिए कर्त्तव्य निष्ठ होना यह उनका स्वभाव था । कोई भी कार्य के लिए किसी की अपेक्षा नहीं करते थे, अपना कर्त्तव्य समझकर कार्य करने लगते थे। एक बार की बात है कि विद्यार्थियों का दीपावली का अवकाश काल समाप्त हो गया था एक भी विद्यार्थी विद्यालय में उपस्थित नहीं था, विद्याथी अपने घर से वापिस नहीं आये थे, पिताजी अपने क्लास रूप में जाकर बैठ गये । हमने घर में देखा पिताजी नहीं है, दूर से देखा कि उनके क्लास रूम के दरवाजे खुले है, हम उपर गए और पिताजी से कहा- पिताजी यहाँ एक भी विद्यार्थी नहीं है, आप अकेले बैठे यहाँ क्या कर रहे है चलो नीचे, घर चलो । पिताजी ने उत्तर दिया इस विषय में तुम मत बोलो दीपावली का अवकाश काल समाप्त हो गया है, विद्यार्थी आयें चाहे न आयें ड्यूटी देना हमारा कर्त्तव्य है, मंत्री देखे या न देखें हमें अपने कर्त्तव्य का पालन करना है। और फिर सबसे बड़ी बात तो यह है कि हम संस्था का फ्री वेतन नहीं ले सकते हैं, ड्यूटी देने के बाद ही वेतन स्वीकार करेंगे । क्लास में अकेले बैठे बैठे बड़े बड़े शास्त्र राजवार्तिक प्रमेय कमल मार्तण्ड आदि बड़े गहन विषयों के नोट्स सरल भाषा तथा संक्षेप में बना देते थे, विद्यार्थियों के घर से आने पर उन्हें नोट्स लिखने को दे देते थे कि हम ने कठिन विषयों को सरल और संक्षेप कर दिया है, इतने कठिन विषयों को तुम लोग नहीं पढ़ पाओगे, इन्हें अपनी कापी में लिख लो, इस तरह अकेले बैठकर भी अपने समय का सदुपयोग करते थे। अध्ययन और लेखन कार्य तो उनके जीवन के अभिन्न अंग थे । विद्यार्थियों से भी यही कहते थे कि अपने कर्त्तव्य का पालन करो। गृह प्रबंधक देखे या न देखे अपनी पढ़ाई करो ।
परिग्रह के प्रति उदासीनता - पिताजी को घर गृहस्थी की वस्तुओं के प्रति कोई मोह नहीं था, हम कभी किसी घर की बात को पूंछते थे तो कह देते थे कि तुम जानों, जैसा करना हो करो। हमें घर गृहस्थी विषय से कोई मतलब नहीं। पिताजी ने आज तक अपने हाथ में पैसा रखा ही नहीं था, कहीं से रूपया लेकर आते थे तो पहले रूपया निकालकर हमें देते थे, फिर कपड़े उतारते थे यदि हम किसी काम में लगे रहते
तो कह देते थे कि पिताजी अभी रूपया आप रखों, हम काम करके ले लेगें तो रूपया वहीं नीचे रखकर कह देते थे कि रूपया ये रखे है, उठाओ चाहे न उठाओ, हमने तो लाकर दे दिये हैं, अब हमें कोई मतलब नहीं ।
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