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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ बालक के शरीर में श्वेत रक्त होना संभव ही है क्योंकि माता का मात्र एक पुत्र के प्रति प्रेम, करूणा, वात्सल्य का भाव रहता है। तीर्थंकर का तो पूरे विश्व के साथ प्रेम, करूणा, वात्सल्य रहता है। "सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया: । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा दुःखं, कश्चित् भवेत॥" अत: पूर्व में भावना करते है कि सब सुखी हो, सब आरोग्य मय हो, सब जीव कल्याण लाभ प्राप्त करें कोई भी कभी भी दुख प्राप्त न करें। ऐसी भावना तीर्थंकर जैसे पुण्य कर्म को उत्पन्न करती है। यह कारण है कि उनमें शरीर का रक्त दूध के समान श्वेत होता है। इतना ही नहीं अतिशय सुन्दर होते है। शरीर से सुगंध आती है पसीना, मल, मूत्र आदि मल का अभाव रहता है। मुख से हितमित प्रिय वचन निकलते है। शरीर में स्वास्तिक कलश आदि 1008 लक्षण रहते है। जिसे देखने के बाद भी आँखे तृप्त नहीं होती है। देवराज इन्द्र अपनी दो आँखों को हजारों आँखे बनाकर तीर्थंकर बालक को निहारता रहता है। तब भी वह तृप्त नहीं होता है। ऐसा सुन्दर रूप भगवान का होता है। जो पूर्व में भगवान की भक्ति करने से मिला करता है। तीर्थंकर बालक के शरीर के बल की महिमा अपार होती है। शास्त्रों में कहा है 12 पहलवानों का बल एक सांड में होता है। 10 सांडों का बल एक भैंसे में होता है। 10 भैंसों का बल एक घोड़े में होता है। 1000 घोड़ों का बल एक हाथी में होता है। 1000 हाथी का बल एक सिंह में होता है । पाँच लाख सिंहों का बल कामदेव में होता है ।दो कामदेव का बल नारायण में होता है। नौ नारायण का बल एक चक्रवर्ती में होता है 10 लाख चक्रवर्ती का बल एक व्यंतर देव में होता है। 10 व्यंतर का बल एक इंद्र में होता है। और इंद्र से अनंत गुणा बल तीर्थंकर का होता है ऐसा बल उन्हीं को मिलना संभव है जो दूसरों पर दया करते है उनकी सेवा करते है। आज जन्म कल्याणक का प्रसंग है यथार्थ में द्रव्य दृष्टि से विचार करे तो पायेंगे कि जीव का न जन्म होता है और न ही मरण होता है। मात्र जीव की अवस्थाएँ जन्म लेती है। अवस्थाएँ ही नष्ट होती है।. जिसे मरण कहते है। अत: जीव (आत्मा) शाश्वत है । वस कर्मोदय के कारण मनुष्य तिर्यंच आदि शरीर धारण करता रहता है। कर्म नष्ट होने पर जीव का जन्म मरण भी नष्ट हो जाता है। कर्म नष्ट से जन्म मरण आदि संसार के सभी कष्ट नष्ट हो जाते है। और शाश्वत सुख प्राप्त हो जाता हैं । यही मोक्ष कहलाता है। यहाँ हमें यह भी देखना है कि कर्म (पाप) का बंध कैसे होता है । तो उत्तर मिलेगा पाप करने से। पाप बुरे कार्यो का नाम है। अत: बुरे कार्यो का नाम पाप है अधर्म है। ठीक इसके विपरीत बुरे कार्यो का त्याग करने का नाम धर्म है। बालक तीर्थंकर ने भी जन्म लेकर पाप का त्याग कर दिया। धर्म को अंगीकार कर लिया। ____ महावीर जब बालक थे माँ उनको लेकर उद्यान में चली गई। बालक जहाँ घास नहीं थी ऐसे एक किनारे पर खड़ा हो गया। जबकि माँ जहाँ घास थी वहाँ बीच में खड़ी होकर बालक को बुलाती है, पर बालक नहीं आता। तब माँ बालक महावीर के पास आती है उसके बाल और गाल सहलाकर कहती है महावीर चुप क्यों हो क्या हो गया ? माँ ने देखा बालक के गाल आंसूओं से गीले थे फिर महावीर कहते है - माँ आपने हरी घास पर पैर रखा तब लगा मेरी पीठ पर ही पैर रख दिया है। जैसे मेरी पीठ पर पैर रखने से मुझे कष्ट होता है । वैसे ही घास पर पैर रखने से घास को भी कष्ट होता है। हमारी आत्मा के समान ही हरी वनस्पति में भी आत्मा रहती है। अत: मुझे कष्ट हो रहा है। यह है महावीर की संवदेना ऐसे लोग ही बन सकते है महावीर ! 511 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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