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शुभाशीष / श्रद्धांजलि
मेरी स्मृतियाँ
डॉ. नेमिचंद्र जैन खुरई
स्व. पं. डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य मेरे गुरु थे। मैंने सन् जुलाई 1949 से 1955 तक छात्रावासी नियमित छात्र के रूप में एवं अप्रैल 1958 तक अंशकालीन विद्यालयीन छात्र के रूप में श्रीगणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय मोराजी भवन सागर में अध्ययन कर प्रथमा, मध्यमा, काव्यतीर्थ परीक्षा उत्तीर्ण की थी। उक्त समय पंडित जी ने मुझे संस्कृत भाषा एवं जैन सिद्धांत के ग्रंथों का अध्ययन कराया था । पंडित जी संस्कृत भाषा एवं जैन दर्शन के श्रेष्ठ विद्वान थे । उनका जीवन पूर्णत: अनुशासित था । वे प्रात: 5 बजे से रात्रि 10 बजे तक की अपनी दिन चर्या घड़ी के कांटों के आधार पर नियमित चलाते थे । प्रात: 5 बजे विद्यालय में उपस्थित होकर हम छात्रों के विभिन्न प्रकार के शारीरिक व्यायाम कराते थे, स्वयं भी व्यायाम करते थे । इस प्रकार "स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क हो सकता है" की उक्ति को चरितार्थ करते थे परिणाम स्वरूप हम सब शरीर एवं मस्तिष्क से पूर्णतः स्वस्थ रहे मुझे याद है कि विद्यालयीन जीवन में मैं कभी भी अस्वस्थ नहीं रहा। 1954 में पंडित जी हम छात्रों को सेवादल के रूप में श्री पपौराा जी क्षेत्र के मेला में ले गये थे । उस समय रात्रि में विभिन्न प्रकार के व्यायाम प्रदर्शन छात्रों ने पंडित जी के निर्देशन में प्रस्तुत किये थे तथा समाज एवं मेला समिति के द्वारा अनेक पुरस्कार प्राप्त किये थे । पंडित 1 जी पहले छात्रों को भोजन कराते बाद में स्वयं आहार ग्रहण करते थे । विद्यालय के छात्रों को पुत्रवत् स्नेह पंडित जी से मिलता था। पंडित जी को कभी भी विद्यालय में देर से उपस्थित होते नहीं देखा । प्रातः 10 बजकर 20 मिनट पर विद्यालय लगता था पंडित जी 5 मिनट पूर्व उपस्थित हो जाते थे ।
प्रशंसनीय कुशल शिक्षक -
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
पंडित जी एक व्युत्पन्न कुशल शिक्षक थे । कक्षा में जो विषय पढ़ाते थे वह छात्रों के मस्तिष्क में भर देते थे परिणामस्वरूप मैंने कक्षा में पढ़ने के बाद छात्रावास में पढ़ने या याद करने की आवश्यकता नहीं समझी और न कक्षा में कभी मार खाई । लघु सिद्धांत कौमुदी एवं शिवराज विजय ग्रंथों को तो ऐसा पढ़ाया था जो आज तक याद है। पंडित जी केवल पढ़ाते ही नहीं थे बल्कि दूसरे दिन पढ़ाये गये विषय को सुनते भी थे। उनकी शिक्षण पद्धति सूक्ष्म से स्थूल की ओर चलने वाली थी । कक्षा में जो छात्र कमजोर रहते थे उन्हें योग्य बनाने के लिये किसी भी प्रकार की प्राईवेट ट्यूशन की व्यवस्था नहीं थी अतः कक्षा के होशियार छात्रों के साथ 4-4 छात्रों को पढ़ने की टोली व्यवस्था पंडित जी की शिक्षण पद्धति का एक प्रकार था अत: अनुत्तीर्ण छात्र उत्तीर्ण होते थे द्वितीय श्रेणी वाला प्रथम श्रेणी एवं प्रथम श्रेणी वाला छात्र विशेष योग्यता के अंक प्राप्त कर उत्तीर्ण होता था । वे छात्रों के बहुमुखी विकास के लिए प्रयत्नशील रहते थे ।
छात्रों को पुत्रवत् स्नेह प्रदाता -
मुझे स्मरण है कि विद्यालय में पुत्रवत स्नेह मिलता ही था पर जब मैं 1971 में आरा से आकर खुरई
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