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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ देश में लागू किया। श्री नन्दा ने नीति मार्ग को त्याग कर अनीति पथ पर विहार करने वालों को सुधारने के लिए एक विशेष कार्यक्रम भी अपनाया था। संत श्री तुकडोजी पर उन पर गृहमंत्री की श्रद्धा विशेष है।आवश्यकता से अधिक निर्भर रहने की भावना उनमें सहसा जगी, देश ने भी उनका साथ दिया किंवा श्री तुकड़ो के सभापतित्व में साधु समाज की स्थापना हुई। समझा जाने लगा कि साधु समाज के पास काम काज तो न कुछ है ही उनका प्रभाव भी भारतीय समाज पर है अतएव अपने प्रभाव और चरित्र के बल पर वह समाज को बदल देगा। कई साधु समाज सदस्यों में अपने नये कार्य के लिए चेतना भी जगी। साधुओं के उदर भरण का दायित्व राज्य को अपने ऊपर ले लेने का आश्वासन दिया। और साधु वर्ग ने जन साधारण की नैतिकता को ऊँचा उठाने का ठोस संकल्प करना आरम्भ कर दिया । तथापि आज इतना समय व्यतीत हो जाने पर भी उस दिशा में अणु भर भी काम न हुआ। श्री तुकड़ों जी का आज नाम भी सुनने में नहीं आता न साधु समाज ही है। और न कोई कार्य क्रम एवं न ही भारतीय जनता का नैतिक उत्थान ही हुआ। श्वेताम्बर जैन समाज के आचार्य तुलसी ने अणुव्रती आंदोलन भी जारी किया। वह कुछ चला, किन्तु जनता का नैतिक स्तर न उठा। संभवत: श्री नंदा ने उपयुक्त व्यक्ति को खोजा ही नहीं।
जहां परलोक में भी भोगों के लिए लालसा की जाती हो वहां से नैतिक स्तर को ऊँचा उठाने की दिशा में प्रयत्न की आशा न केवल दुराशा है परन्तु मृग तृष्णा है । वीतराग साधु से ही जो कि पर वस्तु से सर्वथा उदासीन हो जन-समूह का चरित्र सुधारने के कार्यक्रम को चलाने की आशा वस्तुत: की जा सकती है। वे ही अपने मुख से उच्चारित कर सकते है "विषय-कषाय दुखद दोनों ये इनसे तोड़नेह की डोरी।“अरे सुखाभिलाषी प्राणी यदि तू सुख चाहता है तो इन्द्रियों के विषयों को छोड़ उनके विषय में रति अरति को अपने मानस पटल से दूर कर दे, फिर देख तू स्वाधीन होकर कैसे अतिन्द्रिय निराकुल सुखको आस्वादन कर सकेगा। जब तक तेरे पास रति अरति है पंचेन्द्रियों के मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषय में तू राग और द्वेष करेगा, तब तक सुख कहाँ? अंग्रेजी कवि Shelley ने कहा है
"We look before and after and pine for what is not, Our sweetest song are those that are
full of saddest thought " सांसरिक सुखों की मधुरिमा का आस्वादन परिपाक में कटु-फल ही फलता है।
तब फिर इस समारोह की अवधि कहाँ है और क्या है ? उत्तर ढूंढना सरल भी है और कठिन भी, डॉ. राधाकृष्णन का संकेत है कि धन की तृष्णा और भोगों की लिप्सा समाज में घटे। पाश्चात्य राजनीति दर्शन उस दिशा में उपयोगी नहीं है । भारतीय दर्शन ही सुख शान्ति की कुन्जी है। उनमें प्राण प्रतिष्ठा की जावे तो काम बन सकता है। चारित्र का सुधार और नैतिक स्तर का उत्थान तभी संभव है। वीतराग के अनुयायियों का इस दिशा में सर्व प्रथम दायित्व है ।पथ प्रदर्शन की यदि क्षमता कहीं है तो उन्हीं में हैं , क्योंकि इस मार्ग पर
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