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दिवंगत विद्वानों के जीवन परिचय
शैक्षणिक जीवन :
वर्ष 1924 से विधिवत् श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय, सागर में साहित्य, व्याकरण तथा धर्म विषयों का कुशलता पूर्वक अध्यापन करने लगे । आपकी पाठन शैली किसी बड़ी प्रभावक तथा सरल थी। छात्र हितैषी पं. जी कठोर अनुशासन के पक्षधर थे । गृहकार्य, छात्रों की कठिनाईयों का निराकरण बड़ी प्रसन्न मुद्रा में करते थे। छात्र भी पूरी तैयारी के साथ कक्षा में जाते थे तथा पूछे गये प्रश्नों के सही उत्तर देते थे । साहित्य तथा व्याकरण विषयों के पढ़ाने का तरीका बड़ा सरल तथा छात्रोपयोगी था ।
व्यक्तित्व :
पू. पं. माणिकचंद जी के व्यक्तित्व में भारतीय संस्कृति के सभी गुण समाहित थे। उनके जीवन में "ब्रजादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि " की कहावत चारितार्थ होती थी। पं. जी ऊँचे पूरे 5 फुट 8 इंच की ऊँचाई वाले हंसमुख व्यक्तित्व के धनी थे । धोती, बंद गले का कुर्ता, जाकेट, कोट, गले में दुपट्टा, सिर पर टोपी यही वेशभूषा उनकी आजीवन रही। पं. जी को प्रारंभ में केवल दश रुपया मासिक वेतन मिलता था । इसी में पूर्ण संतुष्ट होकर या पारिवारिक जीवन व्यतीत करते थे। कभी लोभ लालच के चक्कर में नहीं पड़े। सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे । नित्य नियम पूजन का आजीवन पालन किया। पू. वर्णी जी को अपना जीवन निर्माता मानते है । स्व. पू. पं. दयाचंद जी सिद्धांत शास्त्री तथा स्व. पं. पन्नालाल, साहित्याचार्य के प्रति बड़ी विनम्रता प्रकट करते थे । आपकी प्रवचन शैली सारगर्भित तथा आगम के परिप्रेक्ष्य में थी । रात्रि में पाठशालाओं में प्रवचन तथा शिक्षण द्वारा जिनवाणी का आजीवन प्रचार-प्रसार किया । स्मरणीय : पारिवारिक जीवन :
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साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
पं. माणिकचंद जी " न्यायकाव्य तीर्थ" तथा "जैनदर्शनाचार्य" की उपाधियों से विभूषित थे । एक प्रेरक स्मरणीय बिन्दु इनके जीवन का है पं. जी ने 75 वर्ष की आयु में संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से "जैनदर्शनाचार्य" की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर स्वर्णपदक प्राप्त किया था । आपने 45 वर्षो तक महाविद्यालय, सागर में अध्यापन कार्य किया। 40 वर्षो तक पं. जी ने महाविद्यालय के अंतर्गत संचालित 'श्री सरस्वती सन्मति सदन पुस्तकालय का प्रभार बिना किसी वेतन के संचालित किया। पुस्तकों का रखरखाव बड़ी रूचि पूर्वक करते थे । छात्रों को पुस्तकों के प्रति विनय करने की शिक्षा देते थे तथा पुराने समाचार-पत्र छात्रों को देते थे ताकि पुस्तक पर कवर चढ़ाकर रख-रखाव ठीक से होता रहे । ईमानदारी आपके जीवन की पर्याय बन चुकी थी। भारत वर्ष के लब्ध प्रतिष्ठित विद्वान आपकी शिष्य परम्परा में हैं जो समाज की सेवा कर रहे है तथा कुछ सेवा निवृत्त हो चुके है।"
समापन व्यक्तित्व :
स्व. पं. माणिकचंद जी एक सेवाभावी, आदर्श अध्यापक, कुशल प्रवचनकार देवशास्त्र गुरु तथा पू. वर्णी जी महाराज के परम भक्त थे । आपकी यद्यपि कोई मौलिक रचना नहीं है किन्तु छहढाला तथा रत्नकरण्ड श्रावकाचार पर विद्यावर्धिनी टीकायें लिखी है जो छात्रोपयोगी है। पं. जी का स्वर्णवास दिसम्बर 1986 में सागर में मोहननगर वार्ड में अपने पैतृक निवास में हो चुका है किन्तु आपकी संस्थागत तथा
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