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कृतित्व / हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ
तीर्थंकर महावीर के दर्शन में अपरिग्रहवाद
चौबीसवें तीर्थंकर भ. महावीर ने आज से 2532 वर्ष पूर्व, कठोर आध्यात्मिक साधना के फलस्वरूप, वैशाख शुक्ल दशमी तिथि, सन्ध्या समय, हस्त और उत्तरा नक्षत्र मध्य भाग में चन्द्रमा के सुशोभित होने पर, जृम्मक ग्राम के निकट, ऋजुकूला नदी के रम्य तट पर, मनोहर नामक वन के मध्य महारत्न शिला पर विराजमान वीर प्रवर महावीर ने आत्मा में विश्व विज्ञान को उदित किया । अनन्तर तीस वर्ष तक आर्यावर्त के हजारों राष्ट्रों, देशों एवं ग्रामों में निरन्तर विहार करते हुए दिव्य उपदेश द्वारा धर्मामृत का वर्षण किया।
भगवान महावीर ने लोक कल्याण हेतु विचार के लिये अनेकान्त वाद, आचार के लिये अहिंसा, आस्था के लिये अध्यात्मवाद, बहिष्कार के लिये परिग्रह वाद (अर्थवाद), कर्मक्षय के लिये मुक्ति पुरुषार्थ, आहार के लिये शाकाहार और प्रसार के लिये परोपकार (सेवा) का पथ प्रदर्शन किया।
उक्त सिद्धान्तों में अपरिग्रह वाद पर विचार करना इस समय मुख्य लक्ष्य है। भ. महावीर के दर्शनों अपरिग्रहवाद लोककल्याणकारी सार्थक दर्शन है। जैन ग्रन्थों में इसकी व्याख्या की गई है- परि=समन्तात्, ग्रहणाति इति परिग्रहः न परिग्रहः इति अपरिग्रहः अर्थात् जो सब प्रकार से आत्मा को जकड़ लेवे ( पराधीन करे) उसे परिग्रह कहते हैं, जैसे कि अपराधी जन को पुलिस बेड़ियों द्वारा सब प्रकार से जकड़ लेता है ( गिरफ्तार कर लेता है), उसी प्रकार परिग्रह भी आत्मा को सर्वथा गिरफ्तार कर लेता है। इसका स्पष्ट भावार्थ यह हुआ जो आत्मा के विशुद्ध भावों को नष्ट कर अपना रौद्र रूप परिणाम कर देता है उसे परिग्रह की संज्ञा दी गई है।
परिग्रह की परिभाषा - 'मूर्च्छा परिग्रहः'
वाह्यानां गोमहिषमणिमुक्ताफलादीनां चेतनाचेतनानां अभ्यन्तराणां च रागद्वेषादीनां उपधीनां संरक्षणार्जन संस्कारादि लक्षणाव्यावृत्ति: मूर्च्छा | (आचार्य पूज्यपादः सर्वार्थसिद्धिः पृ. 204, अ. 7 सू. 7) सारांश- मूर्च्छा (मोह-माया) को परिग्रह कहते हैं. स्पष्टार्थ - बाह्य, गो, महिष (भैंस), भृत्य आदि चेतन पदार्थों में, मणि, मुक्ताफल, सुवर्ण, रजत आदि अचेतन पदार्थों में तथा अन्तरंग राग, द्वेष, मोह आदि विकारी भावों में संरक्षण, अर्जन, संस्कार, वासना आदि रूप व्यापार या वातावरण को मूर्च्छा कहते हैं। यह विशेषता है कि वात-पित्त-कफ के विकार जनित रोग के कारण होने वाली बेहोशी या मूर्छा को परिग्रह नहीं कहते हैंकारण कि दवा के द्वारा रोगादिकी मूर्च्छा दूर होने पर भी रोगी के स्वस्थ होने पर धनादि सम्बन्धी मोह, माया, लोभ आदि दूषित परिणाम देखे जाते हैं। शारीरिक रोग दवा से नष्ट हो सकते हैं, परन्तु आत्मा के लोभ, मोह माया रूप विचार दवा नष्ट नहीं हो सकते, उनके नाश करने के लिये तो आत्मा के शुद्ध भाव श्रद्धान, ज्ञान, सदाचार, क्षमा आदि गुण होना चाहिये । मूर्च्छा को दूसरे शब्दों में आशा, तृष्णा, लोभ और दुरिच्छा भी कहते हैं। परिग्रह का वर्गीकरण :
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परिग्रह के मूल दो प्रकार होते हैं (1) बाह्य, (2) आभ्यन्तर । बाह्य परिग्रह दो भेदों में विभक्त हैं। (1) चेतन परिग्रह (पदार्थ)- भृत्य, गो, महिष, घोड़ा, हाथी सेना आदि । (2) अचेतन (जड़) परिग्रह- क्षेत्र, भवन,
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