________________
कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ (6) सूक्ष्मत्व (7) अनंतशक्ति (8) अव्यावाधत्व । इस वीर निर्वाण से यह प्रत्यक्ष सिद्ध हो गया कि चतुर्गति में जन्ममरण प्राप्त करने वाले भव्य प्राणी ही आत्म पुरूषार्थ करके परमसिद्ध परमात्मपद को प्राप्त कर लेते है यह तीर्थकर महावीर का सर्वश्रेष्ठ 'सर्वोदय' सिद्धांत है। इस सिद्धांत के माध्यम से सभी प्राणियों को उन्नति का द्वार खुला हुआ है। इस सिद्धांत से प्रभावित होकर एक वैज्ञानिक ने अपने विचार व्यक्त किये हैं जो इस प्रकार है -"I want to interpret Mahavira's life as Rising from Manhood to God - hood' and not as from God-hood to Super-God-hood. If that were so, I would not even touch Mahavira's life, as we are not God but men. Man is the greatest subject for man's study,"(Anekanta 1944, August, Number).
इसका आशय :- मुझे महावीर जीवन इससे प्रिय लगता है, कि वह मानव को परमात्मा बनने की शिक्षा देता है ।उसमें यह बात नहीं है कि महावीर की शिक्षा ईश्वर को और महान् ईश्वरत्व प्रदान करती है
यदि ऐसी बात न होती, तो मैं महावीर के जीवन चरित्र का स्पर्श भी नहीं करता, क्योंकि हम ईश्वर नहीं है, किन्तु मानव है। मनुष्य के अध्ययन के योग्य महान् विषय मानव ही है। (अनुवाद भ.महावीर जीवन दर्शन, पृ. 050)
___ इतिहास कहता है कि ईसा सन् से 527 वर्ष पूर्व श्री वीर ने मुक्ति प्राप्त की। इस निर्वाण की स्मृति में देवों और मानवों ने असंख्य दीपक प्रज्वलित कर वीर के गुणों का स्तवन किया। इसी स्मृति में वीर निर्वाण सम्वत् भी चालू किया गया । इसका ऐतिहासिक प्रमाण यह है कि एक शिलालेख अजमेर के अजायब घर में विद्यमान है। इसको वहाँ के क्यूरेटर रायबहादुर श्री गौरीशंकर जी ओझा ने पढ़ा है। इस शिलालेख की प्रति लिपि इस प्रकार है -वीराय भगवत् चतुरासी निवस्से सालामालिणीये रण्णिविद्रमिज्वमिके। यह शिलालेख वीर नि.सं.84 का सिद्ध होता है । (महावीर निर्वाणोत्सव पृ. 23)
इसी समय से भारत में दीपावली पर्व का उदय हुआ। इस पवित्र अमावस्या के सायंकाल में भ.वीर के प्रधान गणधर श्री इन्द्रभूति गौतम ने केवल ज्ञान को प्राप्त किया। इस स्मृति के उपलक्ष्य में मानवों ने सायंकाल अपने घरों में दीपक जलाये और भ.वीर के साथ गौतमगणधर का पूजन - स्तवन किया। हरिवंशपुराण में इस विषय का प्रमाण इस प्रकार है -
ज्वलत्प्रदीपालिकया प्रवृद्धया सुरासुरै दीपितया प्रवीप्तया । तदास्य पावानगरी समंतत: प्रदीपिताकाशतला प्रकाशते ॥1॥ ततश्च लोक: प्रतिवर्षमादरात् प्रसिद्ध दीपालिक यात्र भारते ।
समुद्यत: पूजार्यतुं जिनेश्वरं जिनेन्द्र निर्वाणविभूतिभक्ति भाव ॥2॥ अर्थात् देवों और मानवों के द्वारा प्रदीप्त तथा महती प्रज्वलित दीपावली से पावानगरी का गगनतल एवं भूतल उस निर्वाण काल में जगमगा रहा था। उसी समय से भारत में मानव समाज वीर निर्वाण की भक्ति में लीन होकर प्रतिवर्ष दीपावली के द्वारा भ.वीर की अर्चा करने में मन वचन कर्म से उद्धत हो गया है।
-183
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org