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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ दूसरी पद्धति में श्रुतज्ञान के अङ्ग प्रविष्ट और अङ्ग बाहय के भेद से दो भेद हैं। अङ्ग प्रविष्ट के आचाराङ्ग आदि बारह भेद हैं और अङ्ग बाहय के सामायिक आदि चौदह भेद हैं। बारहवें दृष्टिवाद अङ्गका बहुत विस्तार है।
इन्द्रियों की सहायता के बिना मात्र अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जो ज्ञान होता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं। यह भवप्रत्यय अवधि तथा गुण प्रत्यय अवधि के भेद से दो प्रकार का होता है। भव प्रत्यय अवधिज्ञान, देव नारकियों तथा तीर्थकरों के होता है और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्य तथा तिर्यचों को होता है । गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के अनुगामी अननुगामी, बर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित के भेद से छह भेद हैं। दूसरी पद्धति से अवधिज्ञान के देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ये तीन भेद हैं। इनमें मति, श्रुत एवं देशावधि ज्ञान मिथ्यादृष्टि और सम्यक्दृष्टि दोनों के हो सकते हैं परन्तु परमावधि और सर्वावधि ये दो भेद मात्र सम्यग्दृष्टि के होते हैं और सम्यग्दृष्टि में भी चरम:शरीरी मुनि के ही होते हैं साधारण मुनि के नहीं। देशावधि और परमावधि के जघन्य से लेकर उत्कृष्ट भेद तक अनेक विकल्प हैं परन्तु सर्वावधिज्ञान का एक ही विकल्प होता है।
जघन्य देशावधि ज्ञान, द्रव्य की अपेक्षा मध्यम योग के द्वारा संचित विस्रसोपचयसहित नोकर्म - औदारिक वर्गणा के संचय में लोक का (343 राज प्रमाण लोक के जितने प्रदेश हैं उतने का) भाग देने से जो लब्ध आवे उतने द्रव्य को जानता है। क्षेत्र की अपेक्षा सूक्ष्मनिगोदिया जीव की उत्पन्न होने के तीसरे समय में जितनी अवगाहना होती है उतने क्षेत्र को जानता है। काल की अपेक्षा आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण द्रव्य की व्यंजन पर्याय को ग्रहण करता है और भाव की अपेक्षा उसके असंख्यातवें भाग प्रमाण वर्तमान की पर्यायों को जानता है। आगे के भेदों में द्रव्य सूक्ष्म होता जाता है और क्षेत्र तथा काल आदि का विषय विस्तृतहोता जाता है । कार्मण वर्गणा में एकवार ध्रुवहार का भाग देने से जो लब्ध आता है उतना द्रव्य, देशावधि ज्ञान के उत्कृष्टभेद का विषय है । क्षेत्र की अपेक्षा उत्कृष्ट देशावधि-सर्वलोक को जानता है । काल की अपेक्षा एक समय कम एक पल्य की बात जानता है और भाव की अपेक्षा असंख्यात लोकप्रमाण द्रव्य की पर्याय को ग्रहण करता है। परमावधि और सर्वावधि का विषय आगम से जानना चाहिये।
दूसरे के मन में स्थित चिन्तित, अचिन्तित अथवा अर्धचिन्तित अर्थ को जो ग्रहण करता है उसे मन:पर्यय ज्ञान कहते है इसके ऋजुमति और विपुलमति के भेद से दो भेद हैं। जो सरल मन वचन काय से चिन्तित परकीय मन में स्थित रूपी पदार्थ को जानता है उसे ऋजुमति कहते हैं तथा जो सरल और कुटिल मन वच काय से चिन्तित परकीय मन में स्थित रूपी पदार्थ को जानता है उसे विपुलमति कहते हैं। मनःपर्ययज्ञान मुनियों के ही होता है गृहस्थों के नहीं। इनमें भी विपुलमति मन:पर्ययज्ञान, मात्र तद्भवमोक्षगामी जीवों के होता है सबके नहीं और तद्भव मोक्षगामियों में भी उन्हीं के होता है जो ऊपर के गुणस्थानों से पतित नहीं होते। ऋजुमति के जघन्य द्रव्य का प्रमाण औदारिक शरीर के निर्जीर्ण समय प्रबद्ध बराबर है और उत्कृष्ट द्रव्य का प्रमाण चक्षुरिन्द्रिय के निर्जरा द्रव्य प्रमाण है अर्थात् समूचे औदारिक शरीर से जितने परमाणुओं का प्रचय प्रत्येक समय खिरता है उसे जघन्य ऋजुमति ज्ञान जानता है और चक्षुरिन्द्रिय के जितने परमाणुओं का प्रचय प्रत्येक समय खिरता है उसे उत्कृष्ट ऋजुमति ज्ञान जानता है। ऋजुमति के उत्कृष्ट द्रव्य में मनोद्रव्य वर्गणा के
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