________________
कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ शिलाभेदगत कृष्ण लेश्या में कुछ स्थान ऐसे हैं जिनमें किसी भी आयु का बन्ध नहीं होता तथा कुछ स्थान ऐसे हैं जिनमें नरकायु का बन्ध होता है । पृथ्वी भेद के पहले और दूसरे स्थान में नरकायु क बन्ध होता है। इसके बाद कृष्ण नील कापोत लेश्या वाले तीसरे स्थान में कुछ स्थान ऐसे हैं जिनमें नरकायु का, कुछ स्थानों में नरकायु और तिर्यच आयु का और कुछ स्थानों में नरक, तिर्यच और मनुष्यायु का तथा शेष तीन स्थानों में चारों आयु का बन्ध होता है। धूलिभेद सम्बन्धी छह लेश्या वाले प्रथम स्थान में कुछ स्थान ऐसे हैं जिनमें चारों आयु का बन्ध होता है। इसके अनन्तर कुछ स्थानों में नरकायु को छोड़कर शेष तीन आयु का
और कुछ स्थानों में नरक तथा तिर्यंच को छोड़कर शेष दो आयु का बन्ध होता है । कृष्ण लेश्या को छोड़कर शेष पांचलेश्या वाले दूसरे स्थान में तथा कृष्ण और नील को छोड़कर शेष चार लेश्या वाले तीसरे स्थान में केवल देवायु का बन्ध होता है ।अन्त की तीन लेश्या वाले चौथे भेद के कुछ स्थानों में देवायु का बन्ध होता है और कुछ स्थान ऐसे है जिनमें किसी भी आयु का बंध नहीं होता, पद्म और शुक्ल लेश्या वाले पाँचवें स्थान में तथा मात्र शुक्ल लेश्या वाले छठवें स्थान में किसी आयु का बन्ध नहीं होता । जल भेद सम्बन्धी शुक्ल लेश्या वाले एक स्थान में किसी भी आयु का बन्ध नहीं होता तात्पर्य यह है कि अत्यन्त अशुभ लेश्या और शुभ लेश्या के समय किसी आयु का बन्ध नहीं होता। ज्ञान मार्गणा
आत्मा जिसके द्वारा त्रिकाल विषयक नाना द्रव्य, गुण और पर्यायों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जानता हो उसे ज्ञान कहते हैं। मति, श्रुत अवधि,मन:पर्यय और केवल के भेद से ज्ञान के पांच भेद हैं, इनमें प्रारम्भ के चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं तथा अन्त का केवलज्ञान क्षायिक है । मति और श्रुत ये दो ज्ञान परोक्ष हैं तथा शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं उनमें भी अवधि और मन:पर्यय देश प्रत्यक्ष हैं और केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष है।
स्पर्शनादि पांच इन्द्रियों और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है । इसके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के भेद से मूल में चार भेद हैं। ये चार भेद बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनि:सृत, अनुक्त और अध्रुव तथा इससे विपरीत एक, एकविध, अक्षिप्र नि:सृत उक्त और ध्रुव इन बारह प्रकार के पदार्थो के होते हैं अत: बारह में अवग्रहादि चार भेदों का गुणा करने पर ४८ भेद होते हैं। ये ४८ भेद पांच इन्द्रियों और मन की सहायता से होते हैं अत: ४८ में ६ का गुणा करने से २८८ भेद हैं। इनमें व्यञ्जनावग्रह के १२४४-४८ भेद मिलाने से मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं। व्यञ्जनावग्रह चक्षु और मन से नहीं होता इसलिये उसके ४८ ही भेद होते हैं।
___मतिज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थ को विशिष्ट रूप से जानना श्रुतज्ञान कहलाता है। इसके पर्याय पर्याय समास आदि बीस भेद होते है। पर्याय नाम का श्रुतज्ञान उस सूक्ष्मनिगोदियालब्ध्य-पर्याप्तक जीव के होता है जो कि छहहजार बारह क्षुद्र भवों में भ्रमण कर अन्तिम भव में स्थित है और तीन मोड़ाओं वाली विग्रह गति में गमन करता हुआ प्रथम मोड़ा में स्थित है। इसका यह ज्ञान लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान कहलाता है । इतना ज्ञान निगोदिया जीव के रहता ही है उसका अभाव नहीं होता ।पुन: क्रम से वृद्धि को प्राप्त होता हुआ अन्तिम भेद को प्राप्त करता है।
319
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org