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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ चारित्र या स्वरूपाचरण चारित्र नहीं लेना, क्योंकि जिसे आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने चारित्रपाहुड में सम्यक्त्वाचरण चारित्र कहा उसे उपासकाध्ययन में सोमदेव सूरि ने निश्चयोचित चारित्र कहा है -
अत: निश्चयोचित चारित्र का अर्थ सम्यक्त्वाचरण चारित्र है न कि स्वरूपाचरण चारित्र।
सम्यक्त्वाचरण चारित्र को दर्शनाचार चारित्र भी कहते हैं और संयमाचरण चारित्र को चारित्राचार भी कहते हैं। पदमनन्दी पंचविंशतिका में आचार्य पद्यनंदी महाराज चौथे अध्याय के 64वें श्लोक में लिखते हैं कि साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्तनिरोध और शुद्धपयोग ये सब एकार्थवाची हैं। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के प्रवचनसार की गाथा 230 की तात्पर्य वत्ति नाम की टीका में लिखते हैं कि सर्वपरिग्रह त्याग, परम उपेक्षा संयम, वीतराग चारित्र और शुद्धोपयोग एकार्थ वाची हैं। आचार्य योगेन्द्रदेव परमात्मप्रकाश ग्रन्थ में लिखते है कि रागद्वेष के प्रभावरूप यथाख्यात चारित्र ही स्वरूपाचरण है, वही निश्चय चारित्र है। प्रवचनसार गाथा 9 की टीका में लिखा है कि प्रथम से तृतीय गुणस्थान तक अशुभोपयोग घटते हुए क्रम से होता है। चौथे से छठवें तक शुभोपयोग और सातवें से बारहवें तक शुद्धोपयोग बढते हुए क्रम से होता है। इन प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि जब प्रमत्त संयत मुनि को भी स्वरूपाचरण चारित्र नहीं होता तो फिर असंयत सम्यग्दृष्टि जीव को कैसे हो सकता है।
यदि कोई तर्कशील व्यक्ति कहता है चौथे गुणस्थान में जो कर्म निर्जरा होती है वह चारित्र का फल है। ऐसा मानना भी ठीक नहीं क्योंकि यदि उसे चारित्र का फल माना जायेगा तो प्रथमोपशम सम्यक्त्व के पूर्व करणलब्धि में ढले हुए मिथ्यादृष्टि के भी प्रति समय असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होती है। उसे भी चारित्र का फल मानना पड़ेगा । ऐसी स्थिति में मिथ्यादृष्टि के भी स्वरूपाचरण चारित्र स्वीकार हो जायेगा । चतुर्थ गुणस्थानवर्ती असंयत सम्यक्दृष्टि के सम्यक्त्वाचरण चारित्र को अचारित्र में गर्भित किया है न कि स्वरूपाचरण चारित्र में।
आचार्य वट्टकेर (कुन्दकुन्द) स्वामी मूलाचार के समयसार अधिकार की 49वीं गाथा में लिखते है जैसे हाथी स्नान करता है और स्नान करते ही गीले शरीर पर धूल डाल कर और अधिक चिपका लेता है अथवा लकडी के छेद करने वाले बर्मा की डोरी जितनी खुलती है उससे अधिक बंधती है उसी प्रकार असंयत सम्यक्दृष्टि जीव जितने कर्मो की निर्जरा करता है उससे अधिक असंयम के कारण बांध लेता है।
आचार्य जयसेन स्वामी समयसार गाथा 72 की टीका करते हुए एवं ब्रह्मदेव आचार्य दृव्य संग्रह की टीका करते हुए लिखते हैं कि जैसे हाथ में दीपक लिये हुए पुरूष रात्रि में अपने पुरूषार्थ के बल से कूप में गिरने से नहीं बचता तो दीपक क्या कर सकता है उसी प्रकार कोई पुरूष श्रद्धा और ज्ञान रूपी दीपक लेकर भी चारित्र रूपी पुरूषार्थ के बल से असंयम भाव से नहीं हटता तो सम्यक्दर्शन और सम्यक्ज्ञान क्या हित कर सकता है, अर्थात् कुछ भी हित नहीं कर सकता । अब यहां एक तर्क पुनः उठता है कि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती असंयत सम्यक्दृष्टि को छहढाला में जघन्य अन्तर आत्मा कहा है और शुभोपयोगी भी कहा है तो कुछ अंश में शुद्धोपयोग भी होना चाहिये । इसका समाधान यह है कि शुभउपयोग के साथ शुद्धोपयोग नहीं हो सकता क्योंकि उपयोग की अशुद्ध, शुभ, शुद्ध ये तीन पर्याय होती हैं। दो पर्याय कभी एक साथ नहीं हो सकती ऐसा
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