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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ प्रदान करता है और इसे यह निश्चय करा देता है कि सत्य के ऊपर अपनी - अपनी परिधि में सीमित विभिन्न नामधारी मत मतान्तरों में से किसी का भी एकाधिपत्य नहीं है। अहिंसा जैन धर्म की कुंजी है। क्रोध, मान, माया और लोभजन्य कषाय भावों से परिचित होकर उनसे दूर रहना चाहिए । कायर एवं डरपोक अपने विरोधी को क्षमा नहीं करते। स्याद्वादी वक्ता का अभिप्राय विवक्षित धर्म का कथन करते हुए वस्तु में विद्यमान शेष धर्मों को गौण करने का ही रहता है। उनके निषेध का नहीं। अत: अनेकांतात्मक वस्तु के स्वरूप का स्याद्वाद वाचक और अनेकांत वाच्य है । हमारा लौकिक व्यवहार भी स्याद्वाद की प्रणाली पर निर्भर रहता है। आम को मीठा कहने वाला उसकी पूर्व सभी पर्यायों को भी जानता है । सच तो यह है कि अनेकांत सिद्धांत का अभिप्राय लेकर उसका स्याद्वाद रूप कथन किये बिना लोक व्यवहार भी नहीं चल सकता है । इसकी विशुद्धजन्य व्यापकता का उल्लेख करते हुए आचार्य श्री सिद्धसेन का सन्मति तर्क दृष्टव्य है :
"जेण विद्या लोगस्सवि, ववहारो सव्वठा ण णिव्वाइ।
तस्स भुवनैक गुरुणो णमो अणेगंत वायस्स ॥" तात्पर्य यह है कि - अनेकांत वाणी विश्वतत्व का वास्तविक प्रतिपादक होने से संसार में सबका गुरु है, जिसके बिना लोक का समस्त व्यवहार भी सर्वथा निर्वाह को प्राप्त नहीं होता। मैं उस अनेकांत स्याद्वादगामी वाणी को नमस्कार करता हूँ। भगवान महावीर इस अनेकांत सिद्धांत और उसके वाचक स्याद्वाद की निष्पक्षता एवं असाम्प्रदायिकता की प्रशंसा करते हुए आचार्य हेमचंद्र ने स्याद्वादमंजरी में स्पष्ट कहा है -
"अन्योन्य पक्ष प्रतिपक्ष भावात्, यथा परेमत्सरिणः प्रवादाः ।
नयान शेषान विशेष मिच्छन्, न पक्षपाती समयस्तथा ते ॥" अर्थात् हे भगवान् ! आपका सिद्धांत (अनेकांत) निष्पक्ष है । इसमें वस्तु में विद्यमान सभी गुणधर्मो को स्वीकार करते हुए उसे स्याद्वाद के द्वारा बिना किसी पक्षपात के प्रतिपादित करता है । वह उन हठाग्रही जनों के समान नहीं है जो पक्ष-विपक्ष का आश्रय लेकर एक दूसरे से मात्सर्य करते हुए विसंवादी बने हुए हैं। यह है अनेकांत का विशुद्ध स्वरूप । यही लोक कल्याण की पावन धारा हम सबका वर्तमान में मार्गदर्शन कर रहा है। सर्वोदर्य तीर्थ का दिग्दर्शक अनेकांत :
आचार्य श्री समंतभद्र महाराज महावीर के इसी अनेकांत सिद्धांत एवं स्याद्वाद को सर्वोदयी तीर्थ कहते हैं :
"सर्वातवत् तदुण मुख्य कल्पं, सर्वात शून्यं च मिथोऽनपेक्षम्। सर्वापदामंत करे निरंतं, सर्वोदयी तीर्थमिदं तवैव ॥"
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