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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ होता है। चार दत्ति इस प्रकार हैं। 1. पात्रदत्ति- सत्पात्रों की सहायता करना । 2. समक्रियदत्ति- यथाशक्ति परस्पर कन्या, धन वस्त्र भूमि आदि का उपकार वुद्धि से प्रदान करना । 3. अन्वयदत्ति- योग्यपुत्र, दत्तकपुत्र. भाई आदि का यथायोग्य वंश एवं सम्पत्ति का उत्तराधिकार प्रदान
करना। दयादत्ति- दया भाव से अकालपीड़ित, आकस्मिक उपद्रवों से पीड़ित युद्धपीड़ित, रोग पीड़ित अनाथ, धनहीन विधवा आदि को तथा पशु पक्षियों को भोजन, वस्त्र, औषधि आदि का प्रदान करना दत्ति का चौथा प्रकार है । ये सब कर्त्तव्य सेवा के अन्दर आ जाते है।
सेवा का अर्थ किसी विवज्ञा से नौकरी या गुलामी भी होता है पर उसका यहां कोई आदर नहीं। उसका जीवन में कोई महत्त्व नहीं है। सेवा और गुलामी में बहुत बड़ा अन्तर है - सेवा स्वतंत्र धर्म है उससे अपना तथा अन्य का हित होता है और गुलामी एक पराधीन विडम्बना है उसे हितकारी नहीं कह सकते हैं। सेवा का लक्ष्य और क्षेत्र विशाल है। गुलामी का लक्ष्य और क्षेत्र संकुचित है। इससे सिद्ध होता है कि कल्याण की भावना से जो कार्य किया जाता है वह उपकार, सेवा या उपग्रह है। जो कार्य कल्याण की भावना से हीन है वह गुलामी, नौकरी या स्वार्थसिद्धि है।
मानव जीवन में सेवा धर्म की महती आवश्यकता है, कारण यह है कि संसार में या देश में कोई भी मानव सर्वगुण और सर्व वस्तुओं से सम्पन्न नहीं है । उसको हर समय और हर क्षेत्र में यथायोग्य किसी न किसी वस्तु की आवश्यकता बनी रहती है। उसकी पूर्ति के लिये सेवा धर्म ही बड़ा निमित्त है जिसके बल से आवश्यकता की पूर्ति होती है। जैसे भूखे को भोजन की, मूर्ख को ज्ञान की गृहहीन को घर की, वस्त्रहीन को वस्त्रों की, रोगी को दवा की, निर्धन को धन की, निर्बल को बल की, और पतित को उत्थान की , आवश्यकता होती है । इसलिये इन सब की पूर्ति सेवा द्वारा होती है, इसलिये प्रत्येक मानव को अनेकों उपायों से सेवाधर्म प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये । बिना सेवा व्रत के मनुष्य स्वपर कल्याण नहीं कर सकता है अत: आचार्यो ने सेवा का अंग दान को गृहस्थों का दैनिक कर्त्तव्य कहा है। भगवत्पूजन करना भी एक प्रकार की सेवा है जो वैयावृत्त्य या अतिथि संविभागवत में अपना स्थान रखती है।
पदार्थो की विवक्षा से सेवा के अनेक भेद हैं जैसे आत्म सेवा, गृह सेवा, कुटुम्ब सेवा, ग्राम सेवा, देश सेवा, विश्व सेवा, समाज सेवा,प्राणि सेवा, आदि। प्रथम मानव को सत्यविश्वास, ज्ञान और आचरण द्वारा आत्म सेवा करना चाहिये और अपने को शक्तिशाली बनाकर सेवा का क्षेत्र धीरे-धीरे बढ़ाते जाना चाहिये । श्री महात्मा गांधी की यही शैली थी। उन्होंने प्रथम आत्म बल प्राप्त कर आत्म सेवा की, पश्चात् बढ़ते हुए विश्व सेवा का व्रत ले लिया ।'वसुधैव कुटुम्बकम् तथा सत्त्वेषु मैत्री ' की भावना ने ही उनको महात्मा बना दिया।
सेवा धर्म महान् है नीतिकारों ने कहा भी है - "सेवा धर्म: परमगहनो योगिनामप्यगम्य:" अर्थात्सेवा धर्म श्रेष्ठ और महान है जो मुनियों को भी प्राप्त करने के लिये कठिन है।
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