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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ आगम में स्वरूपाचरण चारित्र का स्वरूप : ___ - उपाध्याय निर्भयसागर सर्वप्रथम हमें यह समझना आवश्यक है कि स्वरूपाचरण चारित्र कहते किसे हैं ? स्वरूपाचरण चारित्र की व्याख्या करते हुए "आचार्य योगेन्दुदेव" महाराज ने परमार्थ प्रकाश ग्रन्थ के अध्याय 2/36 में लिखा है कि राग-द्वेष के अभाव रूप उत्कृष्ट यथाख्यात चारित्र ही स्वरूपाचरण चारित्र है और वही निश्चय चारित्र है। प्रवचनसार गाथा 7 की टीका करते हुए “जयसेनाचार्य महाराज " लिखते हैं कि स्वरूप में चरण करना तो चारित्र है । स्वसमय (आत्मा) में प्रवृत्ति करना उसका अर्थ है वही वस्तु का स्वभाव होने से धर्म हैं। शुद्ध चैतन्य का प्रकाश करना उसका अर्थ है वही यथावस्थित आत्मगुण होने से साम्य है और दर्शनमोहनीय एवं चरित्र मोहनीय के उदयाभाव के कारण जीव का अत्यन्त निविकार परिणाम है अत: वह निविकार परिणाम ही स्वरूपाचरण चारित्र है इस परिभाषा के अनुसार स्वरूपाचरण चारित्र 11-12 वें गुणस्थान में घटित होता है। द्रव्यसंग्रह में बह्मदेव सूरि लिखते हैं कि शुद्धोपयोग लक्षण वाला निश्चय, रत्नत्रय परिणत शुद्धात्म स्वरूप में चरण अथवा अवस्थान ही स्वरूपाचरण चरित्र है। "आचार्य कुंदकुंद स्वामी प्रवचनसार गाथा 14 में लिखते हैं कि जिसने पदार्थो और सूत्रों को भली-भांति जान लिया है जो संयम और तप से सहित होकर वीतरागी हो गये हैं और जिनके लिये सुख-दुख जीवन-मरण समान है ऐसे श्रमण (मुनि) शुद्धोपयोगी होते हैं इस कथन से स्पष्ट है कि 7वें अप्रमत्त आदि गुणस्थानवर्ती शुद्धोपयोगी होते हैं यही बात पं. दौलतराम जी छहढाला की तीसरी ढाल के चौथे पद में लिखते हैं कि उत्तम मध्यम जघन त्रिविध के अन्तर आतम ज्ञानी । द्विविध संग विन शुद्ध उपयोगी मुनि उत्तम निजध्यानी॥ अर्थात् उत्तम,मध्यम,जघन्य,ऐसे तीन प्रकार के अन्तरात्मा है। उनमें अंतरंग एवं बहिरंग इन दोनों परिग्रह से रहित शुद्धोपयोगी जिन आत्मध्यानी मुनि उत्तम अन्तरात्मा है। पण्डित जी के इस कथन से स्पष्ट है कि समस्त परिग्रह से रहित आत्मध्यानी मुनिही शुद्धोपयोगी होते हैं अन्य परिग्रही, ऐलक, क्षुल्लक और अविरत सम्यग्दृष्टि आदि शुद्धोपयोगी नहीं होते हैं। - तीसरी ढाल के 5वें पद में पंडित जी लिखते हैं कि देशव्रती और अनगारी (छठे गुणस्थानवर्ती मुनि) मध्यम अन्तरात्मा हैं और जघन्य अन्तरात्मा अविरत सम्यग्दृष्टि हैं, ये तीनों मोक्षमार्गी हैं अब यहाँ प्रश्न हो सकता है कि जब अविरत सम्यग्दृष्टि को भी मोक्षमार्गी कहा है तो शुद्धोपयोग होना चाहिये ? उत्तर -नहीं क्योंकि किसी भी आचार्य ने उसे शुद्धोपयोगी नहीं कहा और स्वयं पंडित जी इसी तीसरी ढाल के पन्द्रहवें पद में और स्पष्ट कथन करते हुए लिखते हैं कि - दोष रहित गुण सहित सुधी जे सम्यक् दरश सजे हैं। चरित्र मोहवश लेश न संजम वे सुरनाथ जजै हैं ॥ 501 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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