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________________ व्यक्तित्व साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पुत्र" के श्री मुख से सुना । तब से जिनेन्द्र प्रभु की आराधना करने के लिए मेरा मन प्रतिक्षण उत्साहित रहता है ।, यह आपकी प्रेरणा हमारे जीवन को सुगंधित एवं सुरभित कर रही है । पंडित जी जब पढ़ाते थे तो लगता था कि समय ही रूक जाये परन्तु पंडित जी पढ़ाते रहे और हम सुनते रहे । कोई विषय समझ में न आने पर या जिज्ञासा होने पर किसी भी समय जाकर समझ लेते थे और आप भी पुत्रवत मृदु स्वभावी होने के कारण सरलता पूर्वक विषय को समझाकर हमारे मन की भ्रांतियाँ अलग कर देते थे। उनके सानिध्य में हमें बहुत कुछ सीखने का सौभाग्य मिला है, पंडित जी कहते थे भले ही थोड़ा पढ़ो लेकिन चिंतन करके अपने आचरण में उतारने का प्रयास करो । पंडित जी के सहज, सरल, निर्मल एवं भद्र परिणाम होने के कारण वे सम्यग्दृष्टि थे। क्योंकि यह आगमोक्त है कि - "सम्यग्दृष्टि भद्र परिणामी होता है।" आप पूज्य गणेश प्रसाद जी “वर्णी" की सजग प्रतिभूर्ति थे एवं वर्णी जी के व्यक्तित्व कृतित्व के माध्यम से अपने जीवन को सुशोभित कर देश - देशांतर में दशलक्षण महापर्व, अन्य शैक्षिणिक एवं धार्मिक कार्यक्रमों, विद्वत - सभाओं आदि में धर्म की प्रभावना करते हुए ज्ञान की पताका फहराई एवं जिनवाणी के प्रचार - प्रसार एवं सेवा में अपना जीवन समर्पण कर दिया। __पंडित जी ज्ञान रूपी कमल की तरह थे जिसकी सिद्धांत, ज्ञान, आचरण रूपी महक पूरे विद्यालय में आज भी विद्यार्थियों के लिए प्रेरणास्रोत बनकर कार्य करती है। सहजता एवं सरलता की मूर्ति श्रद्धेय श्री के पावन चरणों में नम्रीभूत हो अपनी आदरांजलि समर्पित करता हूँ। जीवन भर आपका कर्जदार रहूँगा अखिलेश कुमार जैन,झलोन परम आदरणीय पं. दयाचदं जी साहित्याचार्य जी का सम्पूर्ण जीवन नि:स्वार्थ भाव से सबका उपकार करने में व्यतीत हुआ। वे हमेशा बस इसी चिंता में लगे रहते थे कि किस तरह से मैं इस विद्यालय (श्री गणेश दि. संस्कृत महाविद्यालय सागर) को एवं इस विद्यालय के विद्यार्थियों को सफलता के उच्च शिखर पर पहुँचा दूं मैंने जितने बार भी उनके व्याख्यान को सुना, सदैव यही निष्कर्ष निकलता कि विद्यालय की उन्नति कैसे हो? मैं अपने आपको बड़ा अभागा समझता हूँ कि मुझे आपसे पढ़ने का सौभाग्य नहीं मिला लेकिन मुझे आपके चरणों की छत्र - छाया में आठ वर्ष रहने का अवसर प्राप्त हुआ। ऐंसा सोचकर थोड़ा सा मैं अपने आप में गर्व महसूस करने लगता हूँ। पंडित जी जब भी मुझसे बातें करते थे तो मैं अपने आपको (138 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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