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________________ व्यक्तित्व साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ बड़ा भाग्यशाली समझने लगता क्योंकि इतने उच्च कोटि के विद्वान के सामने मैं उनके चरणों की धूल के बराबर भी नहीं था। वैसे तो पंडित जी में हजारों गुण थे लेकिन मैंने उनमें एक विशेष गुण पाया और वह है अपने ज्ञान का अभिमान न होना यह गुण बहुत ही कम लोगों में होता है। सन् 2000 में जब मैं आठवीं कक्षा में था, दशलक्षण पर्व पर सब विद्वान प्रवचन हेतु बाहर जा रहे थे, मेरी भी तीव्र अभिलाषा थी कि मैं भी कहीं न कहीं किसी के साथ जाऊँ पर छोटी उम्र (13 वर्ष) होने के कारण कोई साथ ले जाने को तैयार न था, लेकिन पूज्य पंडित जी ने जब मुझसे पूंछा कि तुम मेरे साथ भोपाल चलोगे तो मुझे एक झटका सा लगा, कि संस्था के प्राचार्य इतने बड़े विद्वान के साथ जाने का मौका मिल रहा है, तो मैं तुरंत तैयार हो गया । आपके सानिध्य में रहकर मैंने जो अनुभव प्राप्त किये वो हमेशा काम आते है । आप मुझे हमेशा यही कहते कि समाज में जाना तो हमेशा अपना व्यवहार मधुर बना के रखना, खुश रहोगे। __ आपका वात्सल्य हमेशा मेरे ऊपर रहा। समय समय पर आप मुझे आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहते थे। एक बार जब मैं छात्रवृत्ति फार्म पर पंडित जी के हस्ताक्षर करवाने गया तो आपने कहा था कि देखो अखिलेश हस्ताक्षर तो मैं कर दूंगा लेकिन अगर तुमने इन रुपयों का दुरुपयोग किया तो इसका सारा दोष मुझे लगेगा। और मैंने संकल्प किया था कि मैं हमेशा छात्रवृत्ति का सद् उपयोग करुंगा। और पंडित जी जब भी छात्रवृत्ति बांटते तो सबके पहले रजिल्ट देखते उसके बाद छात्रवृत्ति देते थे। उनकी यह विशेषता थी। जब मैं विद्यालय से उत्तर मध्यमा द्वितीय वर्ष की परीक्षा पास करके आ. भरतसागर जी के पास चला गया तो पंडित जी हमेशा यही कहते थे कि अपनी पढ़ाई जारी रखना, मैं जब भी घर आता तो आपसे मिलने जरूर आता । मैं 2 फरवरी 2006 को जब आपके पास आया तो आप कुछ अध्ययन कर रहे थे देखते ही पंडित जी ने पूछा कि क्यों कहाँ से आ रहे हो, पढ़ाई कर रहे हो कि नहीं। पंडित जी ने मुझे पास बैठाते हुए कहा कि अखिलेश मेरी एक बात हमेशा याद रखना कि इधर - उधर घूमने से कुछ नहीं होगा, अगर जीवन में सफल होना है तो स्थिर हो जाओ, पैसे कम मिले तो चिंता मत करना लेकिन स्थिर जरूर हो जाना | यह आपसे मेरी अंतिम मुलाकात थी इसके बाद मैं घर (झलौन) चला गया। 12 फरवरी को ज्यों ही सुना कि पंडित जी नहीं रहे तो मानो जैसे बिजली का झटका लग गया हो मैं दो तीन मिनट तक इक टक अचल सा हो गया विश्वास नहीं हो रहा था लेकिन यह विधान ही ऐसा है। आपके जाने से विद्यालय को समाज को बहुत ही बड़ी क्षति हुई है, जो कभी भी पूरी नहीं हो सकती। आपके संस्कार आपके आदर्श, आपकी चर्या सदैव ही मेरे लिए अनुकरणीय रहेगी आपके आशीष की छत्रछाया अब हमें उपलब्ध नहीं, किन्तु आपका सम्पूर्ण जीवन हमें आगे की प्रेरणा देता रहेगा। यही मेरी विनम्र श्रद्धांजलि। -139 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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