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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अपने ही कारण से सुखी होता है । आत्मा को सुखी-दुखी करने वाला अन्य कारण संसार में नहीं है । अर्हन्त देव, निर्ग्रन्थ गुरु आदि कोई भी पद आत्मा का कल्याण नहीं कर सकता । आत्मा का शत्रु मित्र स्वयं आत्मा ही है। जैसे पेट में दर्द होने से चरणानुयोग कहेगा कि दाल खाने से पेट में दर्द होता है परंतु चौके में दाल तो सबने खाई है कोई दाल से दर्द होवे तो सबको दर्द होना चाहिए । करणानुयोग कहता है कि दर्द तो मात्र असाता के उदय से हुआ है इसी प्रकार द्रव्यानुयोग कहता है कि महान् असाता का उदय सुकौशल एवं गजकुमार मुनि को होते हुये भी उन्होंने आत्मा की शांति एवं केवलज्ञान की प्राप्ति की। उससे असाता का उदय पेट में दर्द होने का कारण नहीं, परंतु अपना राग ही मात्र दुःख का कारण है। इसी प्रकार तीनों अनुयोग अपने-अपने पद में रहकर कथन करते हैं। तो भी तीनों अनुयोग एक-दूसरे अनुयोग का निषेध नहीं करते यदि निषेध करते हैं तो एकांत कथन करने से स्वयं मिथ्यात्व आ जाता है। द्रव्यानुयोग में प्रधानता संवर-निर्जरा का भेद नहीं पड़ता, कारण कि सब गुणों की अवस्था होती है शुद्ध-अशुद्ध । परंतु एक समय में एक ही अवस्था होगी। एक ही साथ में दो अवस्था अथवा मिश्र अवस्था द्रव्यानुयोग स्वीकार नहीं करता है जिस काल में ज्ञानगुण अशुद्ध परिणमन करता है उस काल में अज्ञान भाव ही है और जिस काल में शुद्ध परिणमन करता है उसी काल में ज्ञान भाव है। उसी प्रकार जिस काल में चारित्र गुण अशुद्ध परिणमन करता है उस काल में नियम से आकुलता है और जिस काल में चारित्र गुण शुद्ध परिणमन करता है उस काम में निराकुलता ही है। इससे सिद्ध होता है कि द्रव्यानुयोग में संवरनिर्जरा का भेद नही है। द्रव्यानुयोग में गुणस्थान आदि भेद नहीं होता है, गुणस्थान का भेद तो करणानुयोग में ही होता है द्रव्यानुयोग पर पदार्थ को छोडने का उपदेश नहीं देता वह तो दुःख का कारण जो मिथ्यात्वादि आत्मा के परिणमन है उन्हें ही छोडने का उपदेश देता है, द्रव्यानुयोग में पर पदार्थ साधक-वाधक नहीं होते हैं वहां साधक-बाधक मानना मिथ्यात्व है । पर पदार्थ को साधक - बाधक अन्य अनुयोग मानता है और उसी का नाम व्यवहार है इसीलिए शास्त्र की पद्धति व वर्णन व्यवस्था का ज्ञान करना बहुत जरूरी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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