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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ लोक में सर्वत्र व्याप्त हैं परन्तु बादरनिगोदिया, पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, केवली का परमौदारिक शरीर, आहारक शरीर, देवोंका शरीर तथा नारकियों का शरीर इन आठ स्थानों में नहीं होते हैं। पृथिवीकायिक का शरीर मसूर के समान, जलकायिक का जल की बूंद के समान, अग्निकायिक का खड़ी सुइयों के समूह के समान और वायु कायिक का ध्वजा के समान होता हे । वनस्पतिकायिक तथा त्रसों का शरीर अनेक प्रकार का होता है। काय के प्रपञ्च का वर्णन करते हुए आचार्यों ने कहा है कि जिस प्रकार बोझा ढोने वाला मनुष्य काँवर के द्वारा बोझा ढोता है उसी प्रकार संसारी जीव काय रूपी कांवर के द्वारा कर्म रूपी बोझे को ढोता है। एक जगह यह भी लिखा है कि जिस प्रकार लोहे की संगति से अग्नि घनों से पिटती हे उसी प्रकार शरीर की संगति से यह जीव चतुर्गति के दुःख सहन करता है। तात्पर्य यह है कि जब तक शरीर का सम्बन्ध है तभी तक संसार भ्रमण है । सिद्ध भगवन्त काय के सम्बन्ध से रहित हैं। योग मार्गणा पुद्गलविपाकी शरीर नाम कर्म के उदय से, मन वचन काय से युक्त जीव की कर्म-नोकर्म के ग्रहण में कारणभूत जो शक्ति है उसे योग कहते हैं। यह भावयोग का लक्षण है इसके रहते हुए आत्म प्रदेशों का जो परिस्पन्द हलन चलन होता है उसे द्रव्ययोग कहते हैं। मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणा के आलम्बन की अपेक्षा योग के तीन भेद होते हैं - मनोयोग, वचनयोग और काययोग । सत्य, असत्य, उभय और अनुभय इन चार पदार्थो को विषय करने की अपेक्षा मनोयोग और वचन योग के सत्य मनोयोग और सत्य वचन योग आदि चार चार भेद होते हैं। सम्यग्ज्ञान के विषयभूत पदार्थ को सत्य कहते हैं जैसे 'यह जल ' है । मिथ्याज्ञान के विषयभूत पदार्थ को असत्य कहते हैं जैसे मृगमरीचिका में 'यह जल' है । दोनों के विषयभूत पदार्थ को उभय कहते हैं जैसे कमण्डलु में यह घट है । कमण्डलु घट का काम देता है इसलिए सत्य है और घटाकार न होने से असत्य है। जो दोनों ही प्रकार के ज्ञान का विषय न हो उसे अनुभय कहते हैं जैसे सामान्य रूप से प्रतिभास होना कि यह कुछ है ।' काययोग के सात भेद हैं - 1. औदारिक काययोग 2. औदारिक मिश्रकाय योग, 3. वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्र काययोग, 5. आहारक काययोग, 6.आहारक मिश्र काययोग और, 7. कार्मण काययोग। विग्रहगति में जो योग होता है उसे कार्मण काययोग कहते हैं। यह एक, दो अथवा तीन समय तक रहता है इसमें खास कर कार्मण शरीर निमित्तरूप पड़ता है । विग्रहगति के बाद जो जीव मनुष्य अथवा तिर्यञ्चगति में जाता है उसके प्रथम अन्तर्मुहूर्त में अपर्याप्तक अवस्था के काल में औदारिक मिश्र काययोग होता है और अन्तर्मुहूर्त के बाद जीवन पर्यन्त औदारिक काययोग होता है । विग्रहगति के बाद जो जीव देवों अथवा नारकियों में जन्म लेता है उसके प्रथम अन्तर्मुहूर्त में अपर्याप्तक के काल में वैक्रियिक मिश्र काययोग होता है और अन्तर्मुहूर्त के बाद जीवन पर्यन्त वैक्रियिककाययोग होता है। छठवें गुणस्थान में रहने वाले जिन मुनि के आहारक शरीर की रचना होने वाली है उनके प्रथम अन्तर्मुहूर्त में आहारकमिश्रकाययोग होता है और 310 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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