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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पाप के बाप का प्रभाव और उसकी चिकित्सा की खोज
कुछ दिन हुये राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन ने देश में बढ़ती हुई धन भोग-प्रवृत्ति की लिप्सा के प्रसंग पर दुःख प्रकट किया था। वर्तमान में भारत के नारी-नर, बालक, युवा, वृद्ध अपना जीवन स्तर उन्नत करने की आड़ में धन-संग्रह और उसका निज देह हित उपयोग करने की प्रेरणा पाश्चात्य सामाजिक जीवन से प्राप्त करते हुए अपने पारस्परिक जीवन-दर्शन को तिलाज्जलि देकर नवीन दर्शन की अखंड धारा में बहे चले जा रहे हैं । राष्ट्रपति परम-दार्शनिक हैं। द्वारका में ज्योतिर्मठ की यात्रा के अवसर पर उनने अन्तर्मुख तत्व, आत्मा को सदैव स्मरण रखने की कल्याणकारिणी प्रेरणा अपने देश वासियों को दी थी। यह ध्यान रखने कीआवश्यकता है कि यह नर-देह तभी तक चमत्कारी और आर्कषक है, जब कि इसमें जीवात्मा विलास करता है। आत्मा के बिना वह नि: सार और अमंगल-रूप है। इसी कारण भारतीय विचारकों ने देह के स्थान में आत्मा की ओर विचार-शील सामाजिकों का ध्यान बहुधा आकृष्ट किया है। इसके अंतर में कारण यह है कि देह तो जीव अनेक बार समय समय पर नवीन नवीन धारण कर चुका है, अतएव त्रिकाल स्थायी वस्तु की
और लक्ष्य का केन्द्र बिन्दु स्थापित करना उचित है । कहा कि देश में यादनीय केवल आत्मा ही है, वही ब्रह्म है और देह में आसक्त होना आदि अब्रह्म है।
कविवर दौलतराम जी ने मनुष्य को संबोधते हुये इसी हेतु गाया है कि “झुकै मत भोगन ओरी, मान लै या सिख मोरी" और नर मेरी यह शिक्षा हृदयंगम कर कि भोगों की ओर प्रवृत्ति न कर। फिर आगे कहते हैं कि “भोग-भुजंग-भोग सम जानो जिन इन सो रति जोरी । ते अनन्त भव भीम भरे दुःख परे अधोगति पोरी, सहे भव व्याधि कठोरी।" भुजंग भोग जिस प्रकार जीवन नष्ट कर देता है और बड़ी कठिनता से सर्प द्वारा डसे हुए व्यक्ति का प्राणान्त कष्ट सह सह कर होता है, उसी भाँति विषयों को भोगने के फल-स्वरूप संसार परिभ्रमण के घोर कष्टों को जीवात्मा उपलब्ध करता है, और नीच-गति रूप पोल में प्रवेश करके भव कारागृह में कठोर यातनाएँ ही प्राप्त करता है, जहाँ से कि छूटना अत्यन्त कठिन है ।विषय भोग अब्रह्म सेवन ही जो है। कारावास में सुख नहीं है ,सुख तो स्वाधीनता में है । इसी कारण पर दुःख कातर महामना डा. राधाकृष्णन अपने देशवासियों की बढ़ती हुई भोग लिप्सा का विचार कर दुःखी हुये। उनके देश के लोग यदि अध्यात्म की
ओर ब्रह्म के प्रति त्याग की तरफ झुकते दिखाई देते तो उन्हें स्वाधीन निराकुल निजानन्द रूप अमृत का पान करते हुये जानकर उन्हें संतोष एवं आनन्द होता।
इन्द्रियों द्वारा विषयों का भोग होता है। स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और मधुर शब्द अनात्म उद्भूत तत्व है। धन-संग्रह बिना प्राप्य नहीं और धन की अभिलाषा अथवा भोगाकांक्षा जब एक बार जीव पर छा जाती है तो वह घटने का नाम नहीं लेती, दिन दूनी और रात चौगनी होती जाती है। निन्यानवे का फेर जग प्रसिद्ध है। समाजवाद अथवा साम्यवाद का Utopia सिद्धांत मनुष्य की धन लिप्सा और भोग प्रवृत्ति का परिवर्द्धन करने वाला है। समाजवादी किं वा साम्यवादी अपने सिद्धांत का प्रतिपादन और प्रचार करते हुए समझते हैं कि वे
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