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कृतित्व/हिन्दी
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ लोक कल्याण कारिणी सुख वाहिनी समान शैली का प्रचार कर रहे हैं। एवं उनकी पद्धति से सुखी समाज का सर्जन होगा। प्रतीत होता है मानो भारतीय दर्शन सार से रहित दु:खावह और लोगों को पतन की ओर ले जाने वाला है और रहा। अनेकों बार यह तर्क दिया गया और दिया जाता है कि भारतीय दर्शन की परलोक दृष्टाप्रवृत्ति में ही देश को अवनति के गर्त में ढकेला था। तथापि यह शान्त चित्त से सोचने की आवश्यकता है कि धन की लिप्सा और भोगाकांक्षा निरन्तर वृद्धिंगत ही होती है क्या मानव को दानव न बना कर बीच में विराम ले लेगी।
___ कविवर दौलतराम जी ने यह भी गाया कि "भोगन की अभिलाष हरन को त्रिजग संपदा थोरी"। "भोगकांक्षा का परिणाम नित्य-प्रति अधिकाधिक होता जाता है और उसकी सीमा समान तीन लोक की सम्पदा से कम नही । यदि सभी मनुष्यों के पास घातक साधन एक जैसे हों तो भोग लिप्सा चरम अवधि तक पहुँच जाने की अवस्था में दुनियाँ किस प्रकार की शान्ति का आगार बनेंगी ? इस प्रश्न का उत्तर भयावह है। इसी कारण विचारवानों ने भोग-त्याग अथवा गृहस्थों को परिग्रह परिमाण का उपदेश देकर जगत में शान्ति स्थापित करने का महान उपक्रम किया था। आज भी राज्य सरकारें कतिपय आवश्यक वस्तुओं के वितरण सम्बन्धी Control Order जारी करके सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने की कार्यवाही की नीति अपना रही है। संग्रह की बढ़ती हुई सामाजिक प्रवृत्ति का आतंक कारी रूप गत वर्ष तब सामने आया जब कि इन भोगाकाक्षियों ने सभी व्यक्तियों की अतीव आवश्यकता की वस्तु अनाज को अपनी लालसा की तृप्ति का साधन बनाया। इस वर्ष का दुष्काल मानो देशवासियों की ज्ञान-चक्षु उन्मूलन करने के लिए ही प्रकट हुआ है
और लोगों को सीख दे रहा है कि धन संग्रह की प्रवृत्ति सुखोत्पादक कभी नहीं हो सकती, यह गाँठ बाँध लो। देश के अर्थ व्यवस्थापकों एवं धारा शास्त्रियों तक ने इन संग्रहकों को असामाजिक तत्व और उनकी प्रवृत्ति को black marketting अर्थात निशाचरी क्रिया कहा है। महाकवि तुलसीदास ने रजनी-चरों और निशाचरों के नाम से उन लोगों की ओर संकेत किया है जिन्हें वे दुरात्मा और पापी कहते हैं एवं हरि विमुख नारकी जीव बतलाते हैं। धनिकों के विषय में Bible कहा है "It is easy for a Camel to pass though a needle's eye rather than for a rich man to enter the portals of heaven"
आचार्य-वर्य भगवान उमास्वामी ने सूत्र कहा है "बहारंभ परिग्रहत्वं नारकस्यायुषः । "बहुत आरंभ करके और अनावश्यक अपरिमेय परिग्रह जुटा कर मनुष्य घोर नरक भूमि प्राप्त करने का पात्र होता है और अधिकाधिक भोग-सामग्री अन्य जीवों का भाग छल-बल द्वारा अपहरण किये बिना संग्रह हो नहीं सकता। कोट्याधीशों को हम उनकी सम्पत्ति की चकाचौंध और जीवनोपयोगी वस्तुओं की सुलभता देखकर पुण्यवान कह दिया करते हैं यह उलटी समझ है। भोगियों के जगत् में सर्वाधिक भोगी विशेषता रखता है। और साधारणतया संसारी जन अपनी लोभ-वृत्ति के अभिभूत दशा में धनाढ्यों की प्रशंसा में चार चाँद लगा देते हैं। तथा यह कहते हुए भी नहीं सकुचाते कि 'सर्वेगुणा: कांचनमाश्रयंति। ' वस्तुत: तो सत्य यह है,जैसा कि महाभारत में वेद व्यास ने कहा है कि स्वर्ण में कलि का वास है ।अर्थात् जहाँ स्वर्ण है वहाँ पाप रुप निविड़ अंधकार है।
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