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आगम संबंधी लेख
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जबरदस्ती नष्ट नहीं करना चाहिए और यदि वह छूटता हो तो उसका शोक नहीं करना चाहिए। क्योंकि मृत्यु तो अवश्यम्भावी है और किसी के द्वारा भी तद्भवमरण प्राप्त जीव की रक्षा सम्भव नहीं है । " सत्य तो यह है कि शरीर का त्याग करना कठिन नहीं है, किन्तु चारित्र का धारण करना और उसके द्वारा धर्म साधना करना दुर्लभ है ।" यदि शरीर स्वस्थ हो तो आहार- विहार से स्वस्थ बनाये, यदि रोगी हो और से भी धर्म ही साधन बने या रोग वृद्धिंगत हो तो दुर्जन की तरह इसको छोड़ना ही श्रेयस्कर है | वस्तुत: यह धर्म ही इस शरीर को इच्छित वस्तु प्रदान करने वाला है। शरीर तो मरणोपरांत पुनः सुलभ है, किन्तु धर्म अत्यंत दुर्लभ है । "
16. सल्लेखना आत्महत्या नहीं :
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पं. आशाधर जी ने कहा है कि विधिपूर्वक प्राणों को त्यागने में आत्मघात का दोष नहीं लगता है, अपितु क्रोधादि के आवेश से जो विषपान करके या शस्त्रघात द्वारा या जल में डूबकर अथवा आग लगाकर प्राणों का घात करता है वह आत्मघाती है न कि वह व्यक्ति जो व्रतों के विनाश के कारण उपस्थित होने पर विधिवत् भक्तप्रत्याख्यान आदि के द्वारा सम्यक् रीति से शरीर त्यागता है ।"
आचार्य समन्तभद्र ने पहाड़ से गिरने, अग्नि या पानी में कूदकर प्राण विसर्जन करने आदि को मूत कहा है। 2
इन्हीं अंधविश्वासों को दूर करने के लिए कबीरदास ने कहा है कि - गंगा में नहाने से पाप धुल और बैकुंठ की प्राप्ति होती है सारे जलचर बैकुंठ में होते और सिर का मुण्डन होने से स्वर्ग प्राप्ति होती तो भेड़ सीधे स्वर्ग जाती। 30
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जहाँ तक व्रतों की रक्षा का प्रश्न है तो इस पर एक महत्वपूर्ण तथ्य जोड़ते हुए पं. कैलाशचंद्र शास्त्री सागारधर्मामृत की टीका के विशेषार्थ " में लिखते है कि मुस्लिम शासन में न जाने कितने हिन्दू इस्लामधर्म को स्वीकार न करने के कारण मार दिये गये तो क्या इसे आत्मघात कहा जायेगा | जैनधर्म में भी समाधिमरण उसी परिस्थिति में धारण करने योग्य है जब मरण टाले से भी नहीं टलता । अतः व्रतों की रक्षा का एवं शरीर की रक्षा- इनमें से किसी भी एक को चुनना हो तो सभी दर्शनों (चार्वाक को छोड़कर) ने व्रतों की रक्षा का ही समर्थन किया है। किन्तु जब तक शरीर विधिवत् कार्य कर रहा है, तब तक उसे नष्ट न करना और जब सकल उपायों से भी धर्म का विनाशक ही सिद्ध होता हो तो ऐसी परिस्थिति में इसको त्यागना उचित है ।
वैसे तो प्राणों का विसर्जन युद्धक्षेत्र से भी होता रहा है। लाखों हिन्दुस्तानियों ने देश की रक्षा के लिए अपने प्राण न्यौछावर किये हैं, इसे बलिदान की संज्ञा दी गई है, न कि आत्महत्या कहा गया है। झांसी की रानी ने जीते जी अंग्रेजों के हाथ में न आने की कसम ली थी और इसे पूरा भी किया तो क्या इसे आत्महत्या कहा जायेगा ? इनके द्वारा मृत्यु के सहर्ष आलिङ्गन करने को किसी ने आत्महत्या नहीं कहा, अपितु सभी ने बलिदान ही कहा है। धर्म और कानून की नजरों में भी इस प्रकार की मृत्यु बलिदान शब्द
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